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________________ प्रायश्चित्त: आत्म-शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय ३२९ पापकर्म से घृणा और विरक्ति हो गई। उसने निश्चय किया - " मैंने घोर पापकर्म किया है, अतः सर्वप्रथम मुझे अपने पापों को जनता के समक्ष खुल्लमखुल्ला प्रगट करके भविष्य के लिए पवित्र जीवन जीने का संकल्प लेना है, साथ ही मुझे सबसे क्षमायाचना करके वैद्यनाथधाम तीर्थ जाकर वहाँ प्रभु के समक्ष निवेदन करके प्रायश्चित्त लेना है ।" उसने पिता के सामने अपना संकल्प दोहराया। पिता ने संतोष व्यक्त किया। निश्चित तिथि के रोज नगर के बाहर तालाब की पाल पर लोग इकट्ठे हुए | द्रौपदी ने पश्चात्तापपूर्वक आँखों से आँसू बहाते हुए कहा - " भाइयो, बहनो और माताओ ! मैंने अब्रह्मचर्य का बहुत बड़ा पाप किया है। मुझे उसका बहुत पश्चात्ताप है। आप सभी मुझे क्षमा करें। जिस व्यक्ति के साथ मैंने अनाचार सेवन किया है, उससे भी मैं क्षमा माँगती हूँ । भविष्य में मैं अब्रह्मचर्य ही नहीं, हिंसादि समस्त पापों का त्याग करती हूँ। मैं अपने पाप के प्रायश्चित्त के लिए वैद्यनाथधाम तीर्थ जाना चाहती हूँ। आप मुझे अपनी बहन-बेटी समझकर विदा दें। " सबने आशीर्वादपूर्वक उसे विदा दी । कहते हैं - द्रौपदी के इस प्रकार पाप-शुद्धिरूप प्रायश्चित्त करने पर उसके पिता के तालाब में पानी मीठा हो गया, बगीचे के फल भी मधुर और रसदार हो गए। कहते हैं - वैद्यनाथधाम में द्रौपदी ने अनन्यभाव से परमात्मा का स्मरण किया और पश्चात्तापपूर्वक पापों का निवेदन किया, तब वहीं उसका नश्वर शरीर छूट गया । यह है - लोकसमक्ष मन-वचन-काया से प्रकटरूप में ग करने से आत्म-शुद्धि का ज्वलन्त उदाहरण । आलोचनादि कौन करता है, कौन नहीं करता ? 'स्थानांगसूत्र' में बताया गया है कि जिसके हृदय में गौरवग्रन्थि हो, प्रतिष्ठा का भूत सवार हो, मन में माया ( छलकपट) हो, वह यह सोचकर आलोचना, निन्दना, गर्हणा तथा अध्यवशुद्धि नहीं करता कि मैंने अकरणीय किया है, कर रहा हूँ और करूँगा भी; फिर आलोचनादि द्वारा अपने दोषों को प्रगट करने से मेरी अपकीर्ति, अवर्णवाद (निन्दा) और मेरे प्रति दूसरों के द्वारा अविनय होगा अथवा मेरा यश, पूजा, प्रसिद्धि और सत्कार - सम्मान कम हो जाएगा ।" किन्तु आलोचनादि द्वारा होने वाले आत्म-हित आदि लाभों के भगवद्कथनानुसार जिसके मन में से अप्रतिष्ठा, निन्दा, अपकीर्ति की भीति ( आशंका ) या गौरवग्रन्थि निकल जाती है, वह अपनी ज्ञानादि की साधना में कोई दोष, अपराध या भूल हो जाने के पश्चात् तुरंत सरलभाव से आलोचना आदि करके यथायोग्य प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म अंगीकार करने को उद्यत हो जाता है, यह सोचकर कि आलोचनादि न करने से मेरा इहलोक, परलोक गर्हित- निन्दित होंगे तथा ज्ञान - दर्शन - चारित्र भी दूषित होंगे। अतः मन को मजबूत बनाकर सरलभाव से आलोचनादि ( पूर्वक गर्हणा ) करने से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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