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________________ ॐ ३२८ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ * प्रयोग की अपेक्षा से गर्दा के तीन-तीन प्रकार और स्वरूप । ___ 'गर्हा' शब्द बहुत ही व्यापक अर्थ में शास्त्र में प्रयुक्त हुआ है। 'स्थानांगसूत्र' में गर्हा का तीन प्रकार से प्रयोग बताया गया है; यथा-“पापकर्मों को नहीं करने के रूप में कुछ लोग मन से गर्दा करते हैं, कुछ लोग वचन से गर्दा करते हैं और कुछ लोग काया से गर्दा करते हैं।" अथवा प्रकारान्तर से कत पापों की निन्दा करने के रूप में भी गर्दा का प्रयोग तीन प्रकार का कहा गया है, यथा-कुछ लोग दीर्घकाल तक पापकर्मों की गर्दा करते हैं, कुछ लोग अल्पकाल तक पापकर्मों की गर्दा करते हैं और कुछ लोग काया का निरोध करके गर्दा करते हैं।' . .. ___ प्रस्तुत प्रसंग में शास्त्रकार ने उस गर्हाषट् का निरूपण किया है जो गुरु के सान्निध्य में न होकर अपराधी या दोषी-पापी द्वारा स्वयं मन, वचन या काया से अथवा दीर्घकाल या स्वल्पकाल तक अपने द्वारा कृत पापों का समाज के समक्ष स्वयं प्रकटीकरण किया जाता है। गर्हा से आत्म-शुद्धि की एक सच्ची घटना इस सम्बन्ध में एक सच्ची ऐतिहासिक घटना संक्षेप में इस प्रकार है-द्रौपदी नामक एक धनाढ्य ब्राह्मण्ड की लाड़-प्यार में पली लड़की थी। ब्राह्मण का नगर के बाहर एक विशाल तालाब और एक बड़ा बगीचा था। वह नागरिकों को तालाब का मधुर, शीतल जल तथा बगीचे के मधुर फल जनता को मुफ्त में देता था। द्रौपदी जवान हुई। एक ब्राह्मण-पुत्र के साथ उसका धूमधाम से विवाह कर दिया गया। किन्तु दुर्भाग्य से दूसरे ही वर्ष वह विधवा हो गई। उसका पिता उसे आश्वासन देकर उसे अपने घर ले आया। पीहर में मनमानी छूट और स्वच्छन्दता के कारण वह नगर के एक युवक के साथ अनाचार-सेवन करने लगी। दोनों के अनुचित सम्बन्ध का लोगों को पता लगा। चारों ओर निन्दा होने लगी। पिता ने भी द्रौपदी को उपालम्भ दिया। लड़की के इस पापाचरण के कारण उसके पिता के तालाब का पानी सड़ने लगा, गंदा हो गया और बगीचे के फल सड़ने लगे, उनमें कीड़े पड़ गये। लोगों ने पानी और फल ले जाना बंद कर दिया। एक दिन द्रौपदी को अपने पिछले पृष्ठ का शेष (ग) गृहू ग्रहणे धातु से भी ग्रहण करने के अर्थ में 'गर्हा' शब्द निष्पन्न होता है। (घ) गृहू गर्हणे धातु से भी गर्दा = घृणा-जुगुप्सा अर्थ में भी गर्दा शब्द बनता है। १. तिविहा गरहा पण्णत्ता, तं जहा-मणसावेगे गरहति, वयसावेगे गरहति, कायसावेगे गरहति. पावकम्मं अकरणयाए। अहवा गरहा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-दीहंवेगे अद्धं (अघं) गरहति, हस्सं वेगे अद्धं (अघं) गरहति, कार्यवेगे पडिसाहरति, पावाणं कम्माणं अकरणयाए। __ -स्थानांगसूत्र, स्था. ३, उ. १, सू. २६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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