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ॐ प्रायश्चित्त : आत्म-शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय 8 ३२७ 8
किया गया है-“निश्चय ही गर्दा वहाँ है, जहाँ प्रमादरहित होकर अपनी शक्ति के अनुसार कृत कार्यों को क्षय करने के लिए पंच, गुरु या पंच-परमेष्ठी (परम आत्मा) अथवा आत्मा की साक्षी से रागादि विभावों का त्याग किया जाए।" इसलिए गर्हा-प्रायश्चित्त के महत्त्व को समझने वाला साधक या सामान्य आत्मार्थी व्यक्ति भी अप्रतिष्ठा, अपकीर्ति या निन्दा की इस विकट घाटी को पार करके समाज में पुनः प्रतिष्ठित हो जाता है तथा पाप-विशोधन करके महान् बन जाता है। आशय यह है कि गर्दा (गर्हणा) से जब साधक में ऐसी प्रबल आत्म-शक्ति आ जाती है, तब वह लोकनिन्दा, प्रतिष्ठा-हानि, बदनामी आदि सब विकल्पों को पीछे छोड़कर गर्दा की पावन-प्रक्रिया अपनाकर अपने द्वारा कृत पापों को सदा के लिए विदा दे देता है और पापों पर से पर्दा उठा लेता है।
__ गर्दा के विभिन्न रूप और प्रकार _ 'स्थानांगसूत्र' में गर्हा के चार रूपों का निरूपण किया गया है, जैसे(१) उपसम्पदारूप गर्दा-अपने दोष को पश्चात्तापपूर्वक निवेदन करने के लिए गुरु के समीप जाऊँ; इस प्रकार का विचार करना; (२) विचिकित्सारूप गर्दा-अपने निन्द्य दोषों को शीघ्र निकाल फेंकूँ या उनका निराकरण करूँ, ऐसा विचार करना; (३) मिच्छामि (दुक्कड) रूप गर्दी-जो कुछ दुष्कृत (असदाचरण) किया है, वह मिथ्या (निष्फल) हो, इस विचार से प्रेरित होकर 'मिच्छामि दुक्कडं' कहना; और (४) एवमपि प्रज्ञप्तिरूप गर्दा-ऐसा भी भगवान ने कहा है कि अपने दोष की गर्दा (निन्दा) करने से किये गए दोष की शुद्धि होती है, ऐसा विचार करना चौथी गर्दा है। गृहू ग्रहणे धातु से गर्दा शब्द निष्पन्न होता है, इस अपेक्षा से अपने अन्तःकरण में या जीवन में जमी/लगी हुई पापों-अपराधों की गंदगी को दृढ़ता से पकड़ लेनामान = स्वीकार लेना भी गर्दा का एक प्रकार है अथवा गुरु आदि आप्तपुरुषों के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करने पर उनके द्वारा यथायोग्य दिया गया प्रायश्चित्त (दण्ड) ग्रहण करना भी गर्दा है अथवा व्यक्ति के द्वारा अपने दोषों को प्रकट करने पर उसके प्रति आम जनता द्वारा की जाती हुई गर्दा-निन्दा या भर्त्सना को चुपचाप पी जाना या समभावपूर्वक सह लेना भी गर्दा है या उन निन्दा करने वालों के प्रति रोष, द्वेष, वैर-विरोधन करते हुए आत्म-निन्दनापूर्वक अपनी शुद्ध आत्मा में लीन होना भी गर्दा प्रायश्चित्त का एक विशिष्ट प्रकार है।' १. (क) गर्हणं तत्परित्यागः पंच-गुर्वात्म-साक्षिकः।
निष्प्रमादतया नूनं शक्तितः कर्महानये॥ -पंचाध्यायी (उ.), श्लो. ४७४ (ख) चउव्विहा गरहा पण्णत्ता, तं जहा-उवसंपज्जामित्तेगा गरहा, वितिगिच्छामित्तेगा गरहा, जं किं चि मिच्छामित्तेगा गरहा, एवंपि पण्णत्तेगा गरहा।
-स्थानांगसूत्र, स्था. ४, उ. २, सू. २६४
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