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________________ ॐ ३२६ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ की परम निष्कृति है, इसीलिए संतजनों ने पश्चात्ताप से सब पापों की विशुद्धि होने की बात मान्य की है।' प्रायश्चित्त का चतुर्थ चरण : गर्हणा : पापविशोधन का तीव्रतम उपाय गर्हणा-निन्दना के बाद गर्हणा प्रायश्चित्ततप का चतुर्थ चरण है। गर्हणा का अर्थ है-गुरु आदि आप्तपुरुषों के समक्ष अथवा समाज के समक्ष अपने द्वारा कृत दोष, अपराध या भूल को प्रकट करना। निन्दना और गर्हणा में अन्तर है। जब व्यक्ति अपने पाप-दोषों की आलोचना किसी दूसरे को सुनाए बिना आत्म-निन्दा (पश्चात्ताप) पूर्वक मन ही मन करता है, वहाँ निन्दना होती है और जब वह गुरु या किसी विश्वस्त पुरुष अथवा जनता के समक्ष अपने पाप-दोष या अपराध को प्रकट करता है, मन-वचन-काया तीनों को पश्चात्ताप की आग में झोंक देता है, अपनी झूठी प्रतिष्ठा या अहंकार को त्यागकर सरलता और नम्रता के साथ अपने पाप-दोषों को स्वीकार कर लेता है अथवा जनता के समक्ष खुले दिल से गाँठों को खोलकर रख देता है और वह विश्वस्त पुरुष या गुरु जो भी दण्डरूप में प्रायश्चित्त दें, उसको सहर्ष स्वीकार कर लेता है, वहाँ होती है-गर्हणा। ‘समयसार वृत्ति' के अनुसार-गुरु की साक्षी से अपने दोष प्रकट करना गर्दा है।' निन्दना की अपेक्षा गर्हणा में अधिक मनोबल अपेक्षित निन्दना की अपेक्षा गर्हणा में अधिक मनोबल, साहस एवं अहंकार-व्युत्सर्ग की जरूरत होती है। मनुष्य एकान्त में या अकेले में अपने आप को धिक्कार सकता है, तीव्र पश्चात्ताप भी कर सकता है, आत्म-निन्दा के रूप में आलोचना करके अपने पाप-दोषों का प्रक्षालन कर सकता है, लेकिन जाहिर में किये गए बड़े अपराध, पाप या दोष के लिए गर्हणा के रूप में किसी विश्वस्त या महान् के समक्ष आलोचना करना बहुत ही कठिन कार्य है। जिन पंचों, अगुओं, समाज और धर्म-संघ के नेताओं तथा गुरुजनों की दृष्टि में आज तक आदरणीय और प्रतिष्ठित माना जाता था, उनके समक्ष अपने आप को दोषी, अपराधी, पापी या चारित्रहीन प्रकट करना अतीव कठिन कार्य है। इसीलिए ‘पंचाध्यायी (उ.)' में गर्हा का लक्षण -महाभारत, वनपर्व १. (क) आचारांगसूत्र (ख) विकर्मणा तप्यमानः पापाद् विपरिमुच्यते। न तत् कुर्यान् पुनरिति द्वितीयात् परिमुच्यते॥ (ग) पश्चात्तापः पापकृतां निष्कृतिः परा। सर्वेषां वर्णितं सद्भिः सर्वपाप-विशोधनम्॥ २. गुरुसाक्षि-दोष-प्रकटनं गर्हा। -शिवपुराण -समयसार, तात्पर्यवृत्ति ३०६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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