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________________ प्रायश्चित्त: आत्म- -शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय ३२३ में, भ्रमवश, लाचारी से अथवा 'प्रवचनसारोद्धार' ग्रन्थ में प्रतिपादित अष्टविध प्रमाद में से किसी प्रमादवश किसी भी जीव की विराधना होने पर 'मिथ्या दुष्कृत' नामक प्रतिक्रमण किया जाता है । ' 'सर्वार्थसिद्धि' में भी मिथ्या दुष्कृत के रूप में ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण का समर्थन करते हुए कहा है- " मिथ्या दुष्कृत कहकर अपने मन में कृत पापों के प्रति पश्चात्ताप या आत्म-निन्दा के रूप में मनःस्थित प्रतिक्रिया व्यक्त करना भी प्रतिक्रमण है।” यह वाचिक प्रतिक्रमणरूप प्रायश्चित्त साधक को उक्त कर्मों से होने वाले आस्रवों या बन्धों से बचा लेता है, व्रत-नियमों की साधना में लगने वाले अतिचारों (दोषों) से आत्मा की रक्षा करता है और साधक की निरहंकारी आत्मा को आराधक और शुद्ध बनाता है। 'भगवती आराधना' के अनुसार - "हाँ ! मैंने यह दुष्कृत (पाप) किया है, यह प्रतिक्रमण है, प्रतिक्रमण के सूत्रों का उच्चारण करना वाक्य-प्रतिक्रमण है और शरीर के द्वारा किये हुए दुष्कृत्यों का आचरण न करना काय प्रतिक्रमण है । " अतिचारों का प्रतिक्रमण : पाठ द्वारा आत्मालोचना के दौरान दिवस या रात्रि आदि में अपनी चर्या करते समय जो पाप-दोष लग जाते हैं, उनका शोधन करने हेतु 'आवश्यकसूत्र' में संक्षिप्त प्रतिक्रमण के रूप में 'इच्छामि ठामि पडिक्कमिडं' का पाठ बोला जाता है और अन्त में 'मिच्छामि दुक्कडं' बोलकर प्रायश्चित्त किया जाता है। उसका भावार्थ यह है"भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ। जो मैंने दिवस या रात्रि में कायिक, वाचिक और मानसिक अतिचार ( गृहीत व्रत -नियमों में, संयम में दोष) किये हों, कैसे-कैसे ? सूत्रविरुद्ध, मार्ग (मोक्षमार्ग) विरुद्ध, आचारमर्यादा (कल्प) विरुद्ध, न करने योग्य ( अकरणीय), दुर्ध्यानरूप, दुश्चिन्तनरूप, दुश्चेष्टारूप, अनाचरणीय `एवं अनिच्छनीय (अनिष्ट ) ( श्रमण के लिए / श्रावक के लिए अयोग्य) दोष, ज्ञान में, पिछले पृष्ठ का शेष (ख) एकेन्द्रियाद्यो यदि देव देहिनः, प्रमादतः संचरता इतस्ततः। क्षता विभिन्ना मलिनता निपीडितास्तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥ - परमात्मद्वात्रिंशिका, श्लो. ५ १. प्रवचनसारोद्धार में प्रमाद आठ प्रकार का बताया है - अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, स्मृति-भ्रंश, धर्माचरण में अनादर और योगदुष्प्रणिधान २. (क) मिथ्या- दुष्कृतभिधानादभिव्यक्त-प्रतिक्रियं प्रतिक्रमणम् । - सर्वार्थसिद्धि ९/२०/४४०/६ (ख) हा ! दुष्कृतमिति वा मनःप्रतिक्रमणम् । सूत्रोच्चारणम् वाक्य-प्रतिक्रमणम् । कायेन तदनाचरणं काय-प्रतिक्रमणम् । -भगवती आराधना (वि.) ५०९/७२८/४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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