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________________ ॐ ३२४ * कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ दर्शन में तथा चारित्र में श्रुतज्ञान में, सामायिक (समत्व) साधना में लगे हों, (कहाँ-कहाँ ?) तथा तीन गुप्तियों में, चार कषायों से, पंच महाव्रतों (श्रावक के पंच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों तथा चार शिक्षाव्रतों) में, षड्जीवनिकायों में, सप्त पिण्डैषणाओं में, अष्ट प्रवचन-माताओं में, नवविध ब्रह्मचर्यगुप्तियों में, दशविध श्रमणधर्म में जो खण्डता = स्खलना तथा विराधना की हो, वह दुष्कृत मेरे लिए मिथ्या हो।" इस प्रकार आत्मालोचना के सन्दर्भ में मिथ्या दुष्कृत प्रतिक्रमण करने का एक सुन्दर तरीका है। दोष-शुद्धि करने का सरलतम अहिंसक उपाय : आत्मालोचना इस प्रकार का आत्मालोचन करने के लिए व्यक्ति को स्वयं ही पहल करनी चाहिए। दूसरा व्यक्ति उसका दोष निकाले, उसकी नुक्ताचीनी, निन्दा या बदनामी करे, इसकी अपेक्षा व्यक्ति स्वयं ही अपने दोषों, दुर्गुणों या दुष्कर्मों की बारीकी से छानबीन करके प्रतिक्रमण द्वारा उन्हें निकाल ले तो उससे प्रायश्चित्ततप, निर्जरा और संवर भी होगा। दूसरा कोई व्यक्ति या सरकार अपने दोषों, अपराधों या पापों के लिए दण्ड दे, दमन करे, बन्धनादि में जकड़े, कैद करे, इससे तो अच्छा है-अपना दोष-पाप स्वयं जान-समझकर निकाल लें। आत्मालोचना स्वयं का सुधार है। भगवान महावीर ने कहा है-यद्यपि आत्म-दमन (प्रायश्चित्त) दुर्दम्य है, किन्तु अपने आप ही दमन करना श्रेयस्कर होता है। जिसकी आत्मा शान्त-दान्त हो जाती है, वह इस लोक और परलोक में सर्वत्र सुखी होता है। . प्रायश्चित्त का तृतीय चरण-निन्दना : स्वरूप और उपयोगिता निन्दना-'प्रतिक्रमण' में आत्मालोचना के साथ भी और गुरु आदि के समक्ष आलोचना करने में भी 'निन्दना' का प्रयोग होता है। प्रतिक्रमण और आलोचना (आलोयणा) के पश्चात् पापविशोधनरूप प्रायश्चित्त का तृतीय चरण निन्दना है, जिसका फलितार्थ है-“मैं अपनी आत्मा पर लगे पापों, दोषों, दुष्कृतों या निकृष्ट आचरण से दूषित जीवन की निन्दा करता हूँ।" यही वास्तविक आत्म-निन्दा है। निन्दना का अर्थ-पर-निन्दा या अपने आप को कोसना, अपने आप में १. इच्छामि ठामि पडिक्कमिउं, जो मे देवसिओ/राइओ अइयारो कओ, काइओ, वाइओ, माणसिओ, उस्सुत्तो, उमग्गो, अकप्पो, अकरणिज्जो, दुज्झाओ, दुविंचितिओ, दुचिट्ठिओ, अणायारो अणिच्छियव्वो, असमण-पाउग्गो/असावगपाउग्गो; नाणे तह दंसणे, चरित्ते, सुए सामाइए, तिण्हं गुत्तीणं समणाणं जोगाणं जं खंडियं, जं विराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं। -आवश्यकसूत्र २. अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दम्मो। अप्पा दंतो सुही होई, अस्सिं लोए परत्थ य॥ -उत्तराध्ययनसूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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