SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ३२२ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ जिससे उनके समस्त घातिकर्मों का क्षय हो गया, केवलज्ञान प्रकट हुआ, वे सर्वकर्म क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गये। प्रतिक्रमण से आत्मा निर्दोष एवं समाधियुक्त हो जाती है __ प्रतिक्रमण से महालाभ बताते हुए भगवान महावीर ने कहा-"प्रतिक्रमण से जीव स्वीकृत व्रतों के छिद्रों (दोषों) को बन्द कर देता है। व्रत छिद्रों को बन्द कर देने वाला साधक आस्रवों का निरोध (संवर) करता है। उसका चारित्र असबल (अतिचार के धब्बों से रहित) होता है। वह अष्ट-प्रवचन-माताओं के आराधन में. उपयुक्त (सावधान) रहता है तथा संयम-योग में अपृथक्त्व (एकरस = तल्लीन) हो जाता है एवं सम्यक् समाधियुक्त होकर विचरण करता है। पंचविध प्रतिक्रमण वैसे आगमों में प्रतिक्रमण के मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योगरूप पाँच प्रकार तथा 'स्थानांगसूत्र' के अनुसार-आम्रवद्वार-प्रतिक्रमण, मिथ्यात्व-प्रतिक्रमण, कषाय-प्रतिक्रमण, योग-प्रतिक्रमण और भाव-प्रतिक्रमण, यों पाँच प्रकार भी बताये हैं। ऐपिथिक प्रतिक्रमण क्या और कैसे ? इनके सिवाय गमनागमन आदि प्रवृत्तियों में लगे हिंसादि दोषों से निवृत्त होने के लिए ऐपिथिक प्रतिक्रमण भी बताया गया है। जिसमें दिन या रात्रि में गमनागमन, भाषण-सम्भाषण, लेखन-प्रेक्षण, वाचनादि पंचविध स्वाध्याय, अध्ययन, भिक्षा या आजीविकादि चर्या में, उठने-बैठने, सोने-जागने, भोजन करने, मलमूत्रादि-विसर्जन में तथा प्रमार्जन प्रतिलेखन आदि किसी भी चर्या या प्रवृत्ति के समय एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के किसी भी जीव को मन-वचन-काया द्वारा, हिंसादि द्वारा क्षति पहुँचाई हो, उनकी विराधना की हो, कराई हो या अनुमोदन किया हो तो हार्दिक पश्चात्ताप (निन्दना) पूर्वक उन जीवों से क्षमा माँगकर, मेरा यह पाप-दोष = दुष्कृत निष्फल (मिथ्या) हो (मिच्छामि दुक्कड), इस प्रकार वचन से कहा जाता है। साधक के द्वारा अपनी चर्या के दौरान अनजान १. पडिक्कमणेणं वयछिद्दाई पिहेइ। पिहिय-वयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे, असबलचरिते अट्ठसु पवयण-मायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ। -उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. १२ २. (क) देखें-आवश्यकसूत्र में मिथ्यात्वादि पंचप्रतिक्रमण का उल्लेख (ख) स्थानांगसूत्र, स्था. ५, उ. ३, सू. २२२ ३. (क) इरियावहियं पडिक्कमामि, - - - - इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विराहणाए गमणागमणे पाणक्कसणे जे मे जीवा विराहिया एगिंदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचिंदिया अभिहया जीवियाओ ववरोविओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं। -आवश्यकसूत्र में इरियावहिया पाठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy