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________________ ॐ ३१४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ * आभ्यन्तरतप में प्रायश्चित्त को ही प्राथमिकता क्यों ? आभ्यन्तरतपों में पहला तप है-प्रायश्चित्त। पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों से मुक्ति और आत्म-शुद्धि के लिए प्रायश्चित्ततप अकसीर उपाय है। प्रायश्चित्ततप को आभ्यन्तरतप में सर्वप्रथम स्थान इसलिए दिया गया है कि मुमुक्षु जीवन का उद्देश्य कर्ममलों को निकालकर आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित करना, अपने अनन्तज्ञानादि गुणों को प्रगट करना है। वह तभी हो सकता है जब पहले आत्मा में जो भी पाप दोष लगे हों या लग रहे हों, उनकी विशुद्धि की. जाये। इसीलिए आभ्यन्तरतपःसाधना द्वारा आध्यात्मिक उत्कर्षण या आत्मिक-शक्ति, आत्मिक-आनन्द एवं आत्म-ज्ञान प्राप्त करने से पूर्व सर्वप्रथम प्रायश्चित्त को स्थान दिया गया है। जैसे हठयोग में शरीर शोधन के लिए नेति, धोती, वस्ति, न्यौली, वज्रौली, कपालभाति, कुंजरक्रिया आदि का विधान है, राजयोग में यम-नियम आदि का विधान है। आयुर्वेदिक उपचार में कायाकल्प करने से पूर्व वमन, विरेचन, स्वदेन, स्नेहन आदि क्रियाओं द्वारा पहले मल-शोधन कर लिया जाता है। इसमें जितनी सफलता मिलती है, उसी अनुपात में जीर्ण-रोगी आरोग्य लाभ करता है। रक्त विकार जैसे रोगों के निवारण के लिए कुशल वैद्य पेट साफ करने के बाद ही अन्य रक्तशोधक उपचार प्रारम्भ करते हैं। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति एवं स्वरूप-स्थिति के लिए आत्मा में जमे हुए मलों, विकारों, दूषणों तथा अवरोधों एवं काषाय-कल्मषों का निवारण करना अत्यावश्यक हो जाता है। दुष्कर्मों-दोषों और अपराधों-पापों के रहते आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग में पद-पद पर कठिनाई आती है। जिस प्रकार फूटे और गंदे बर्तन में दूध डालने से उसका कुछ भी सदुपयोग नहीं हो सकता, वह दूध व्यर्थ ही चला जाता है, उसी प्रकार दुष्कर्मों-पापों एवं दोषों के छिद्रों से अशुद्ध एवं सछिद्र बनी हुई आत्मा में किसी प्रकार का आत्म-साधनारूपी दूध डालना निरर्थक चला जाता है। उससे वह साधना भी दूषित होती जाती है। छिद्र वाली नौका में पानी भर जाता है, उस पानी को नहीं उलीचने से वह डूब जाती है। इसी प्रकार पापों और दोषों के जीवन-नौका में घुस जाने पर उन्हें प्रायश्चित्त द्वारा तुरन्त बाहर न निकाला जाय तो उक्त पापोंदोषों के छिद्र वाली जीवन-नौका में अशुभ आम्रवों-पापकर्मों के जल के तेजी से भर जाने से वह अधिकाधिक भारी हो जाती है और शीघ्र ही पतन की खाई में गिर पड़ती है। उसमें आत्म-साधना को झेलने की शक्ति नहीं रहती। ज्ञान-दर्शन-चारित्र में अशुद्धियों के रहते मोक्षमार्ग की ओर गति-प्रगति ठप्प हो जाती है, आत्मा की शुद्धि हुए बिना वह परमात्मपद को कैसे प्राप्त कर सकती है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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