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________________ * प्रायश्चित्त: आत्म शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय ३१३ (सम्यक्तप, वैराग्य, त्याग और समता आदि) से प्राप्त होने वाला सुख नित्य है, भयों से रहित है, अपने अधीन है। इसलिए साधक को इस स्वाधीन सुख के लिए प्रयत्न करना चाहिए।” मुमुक्षु के लिए बाह्याभ्यन्तरतप द्वारा साधना अनिवार्य परन्तु मन को इस प्रशम - सुख की ओर मोड़ने के लिए पहले बाह्य और फिर आभ्यन्तरतप द्वारा इस प्रकार साधा जाता है, जिस प्रकार सरकस के पशु - शिक्षक उन प्राणियों की अनगढ़ आदतों तथा आक्रमणकारिता को छुड़ाने तथा नये प्रकार की उपयोगी प्रवृत्तियों से अभ्यस्त करने में भारी माथापच्ची करते हैं। तभी सिंह आदि जैसे उन आक्रमणकारी पशुओं को वे आज्ञाकारी, स्वामिभक्त एवं उपयोगी बनाने में सफलता प्राप्त करते हैं। उन्हें मार और प्यार की दोहरी भूमिका निभानी पड़ती है। इसी प्रकार कर्ममुक्ति के अभिलाषी मानव को भी मन की चंचलता और सुखलिप्सा वाली अनगढ़ आदतों को छुड़ाने और निर्जरोपयोगी प्रवृत्तियों में संलग्न होने के अभ्यास हेतु बाह्य और आभ्यन्तर सम्यक्तप का कठोरता से पालन कराना पड़ता है। वास्तव में बाह्य - आभ्यन्तरतप में तितिक्षा का, अर्थात् शारीरिक, मानसिक, ऐन्द्रियक एवं आध्यात्मिक असुविधाओं को समभावपूर्वक शान्ति से सहने का अभ्यास इसलिए कराया जाता है कि तन, मन, बुद्धि, इन्द्रिय और आत्मा की अनगढ़ कुसंस्कारिता, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानता आदि के कारण होने वाली चंचलता, भोग-सुखलिप्सा एवं स्वार्थ-परायणता को छुड़ाया जा सके। उन्हें पतनोन्मुखी बाह्य ललकों से विरत करके उच्चस्तरीय आत्म-शुद्धि एवं आत्मा के अनन्त चतुष्टय की अभिव्यक्ति की जा सके।' षड्विध आभ्यन्तरतप से मन का सर्वांगीण परिवर्तन आभ्यन्तरतंप की सारी प्रक्रिया मन को - मन के अनघड़ स्वभाव को बदलने की है। जब मन की इतनी योग्यता बढ़ जाती है कि उसमें सहज रूप से सरलता, मृदुता, समर्पणवृत्ति, निरभिमानता आदि गुण आ जायें, तब ग्रन्थि - मोक्ष, मोह-विमोक्ष तथा कषाय - विमोक्ष होने लगता है । मन के सर्वांगीण परिवर्तन की दृष्टि से आभ्यन्तरतप के छह प्रकार बताए हैं - ( १ ) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान, और (६) व्युत्सर्ग। ये छह आभ्यन्तरतप जीवन में परिनिष्ठित होने पर कर्मों की निर्जरा और महानिर्जरा तक होती है। १. भोगसुखैः किर्मानत्यैर्भयबहुलै : कांक्षितैः परायत्तैः । नित्यमभयमात्मस्थं प्रशमसुखं तत्र यतितव्यम् ॥ - प्रशमरति, श्लो. २२२ २. अब्भिंतरए तवे छव्विहे प. तं. - पायच्छित्तं, विणओ, वेयावच्चं, सज्झाओ, झाणं, विउसग्गो । -उववाइसुत्तं, सू. १९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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