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________________ ॐ प्रायश्चित्त : आत्म-शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय ॐ ३११ ॐ उसमें अभी सरलता, नम्रता-निरभिमानता, मृदुता, निर्लोभता, एकाग्रता, अनुत्सुकता, इच्छानिरोधवृत्ति, त्यागवृत्ति न भी हो, माया, अहंकार, मद, मात्सर्य, लोभ, तुच्छ स्वार्थ, व्यग्रता, चंचलता, अविरक्ति आदि तीव्रतर या तीव्र मात्रा में हो। ऐसी स्थिति में माया होगी तो आलोचनासहित प्रायश्चित्ततप नहीं हो सकेगा। अहंकार या मद होगा तो ज्ञानादि के प्रति विनयभाव न हो सकेगा, नम्रता-मृदुता न होगी तो वैयावृत्यतप नहीं हो सकेगा। एकाग्रता या योगों की चपलता होगी तो स्वाध्याय एवं ध्यानतप न हो सकेगा। अविरक्ति या समता (ममता-त्याग) न होगी तो व्युत्सर्ग या कायोत्सर्गतप नहीं हो सकेगा। मन की दुष्प्रवृत्तियों को सुप्रवृत्तियों में बदलना ही आभ्यन्तरतप बाह्यतप से मुख्यतया तन और वचन को साध लेने पर भी तथा प्राणशरीर का विकास कर लेने.पर अनादिकालीन मन के संस्कार सहसा नहीं बदलते। मन का मुख्यतया दो बातों पर अत्यधिक झुकाव रहता है-(१) चंचलता की ओर, और (२) सुखलिप्सा की ओर। मन इतना चंचल है कि प्रतिसंलीनतातप द्वारा अन्तर्मुखी करने का अभ्यास करने पर भी वह कल्पना के घोड़े पर सवार होकर क्षणभर में आकाश-पाताल की सैर कर लेता है। इस व्यर्थ के भटकाव में उसकी अधिकांश शक्ति नष्ट हो जाती है। उसे रोककर उपयोगी लक्ष्य में-आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक विकास में केन्द्रित करने का अभ्यास आभ्यन्तरतप के ही माध्यम से हो सकता है। यही कारण है कि आभ्यन्तरतप मानसिक स्तर पर किया जाता है। अभीष्ट लक्ष्य में मन को केन्द्रित करने का ही परिणाम है कि उससे अनेक उपलब्धियाँ, सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। आभ्यन्तरतप द्वारा मन को आत्मिक क्षेत्र में लगा देने से, यानी बाहर भटकते हुए मन को आन्तरिक क्षेत्र में लगा देने से, बहिर्मुखी मन को अन्तर्मुखी कर देने से ज्ञान-दर्शन-चारित्रतप की अनक सुषुप्त शक्तियों का जागरण होने लगता है। जो मन पहले राग-द्वेषादि या कषायादि विकारों से आविष्ट होकर शुभ-अशुभ कर्मों का बंध करता था, वह अन्तर्मुखी होकर भावसंवर और भावनिर्जरा के द्वारा कर्मों से, द्रुतगति से मुक्ति पाने का पुरुषार्थ करने लगता है। चंचलता की वृत्ति से छुटकारा पाकर एकाग्रता के लिए-आत्म-शुद्धि एवं आत्म-गुणों के विकास की धारा में बहने के लिए लगाया हुआ अतएव सधा हुआ मन कितने चमत्कारिक परिणाम उत्पन्न करता है, इसे अनुभूति द्वारा ही जाना जा सकता है। __ मन का दूसरा झुकाव है-सुखलिप्सा की ओर। सुखोपभोग की लालसा की पूर्ति इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों द्वारा मन करता है, विभिन्न इन्द्रिय-विषयों में सुख के आस्वाद की कल्पना करने तथा साधन जुटाने के ताने-बाने बुनने में उसकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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