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________________ ॐ ३१० 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 को पृथक्-पृथक् करके बताना तो केवल हमारे समझाने के लिए है। जैसे संतरा और उसका छिलका अलग-अलग नहीं हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक और सहायक हैं। छिलका न हो तो संतरे की रक्षा नहीं हो सकती। उसमें रस बनने तक सुरक्षित रखने में छिलका उसका सहायक है और केवल छिलका हो तो उसे कोई संतरा नहीं कहेगा, न ही उसका उतना मूल्य होगा। बाहर छिलका होता है, तभी संतरे के भीतर में कुछ हो सकता है। इसलिए संतरा और छिलका दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं कि हम उन्हें पृथक्-पृथक् करके वास्तविक मूल्यांकन नहीं कर सकते। भीतर में कुछ बनता है तो उसका प्रभाव बाहर के छिलके पर भी पड़ता है, वह भी संतरे की सुगन्ध और किंचित् गुण को पा जाता है, इसी प्रकार बाह्यतप और आन्तरिकतप, ये दोनों एक-दूसरे से कटे हुए नहीं, सटे हुए होते हैं। जो बाह्यतप करता है, उसके साथ आन्तरिकतप भी होगा, तथैव प्रायश्चित्तादि आन्तरिकतप करेगा, उसके साथ भी उपवास आदि बाह्यतप भी होगा। बाह्य और आभ्यन्तर दोनों तप अन्योन्याश्रित तथा सापेक्ष हैं __ प्रश्न होता है जब बाह्य और आभ्यन्तर ये दोनों तप एक हैं, परस्पर अन्योन्याश्रित हैं, सटे हुए हैं, अनुबद्ध हैं, तब इनका विभाजन क्यों किया गया? इसका समाधान यह है कि निश्चयनय की दृष्टि से तो तप के ये दो या बारह भेद भी अभूतार्थ सिद्ध होंगे। 'द्रव्यसंग्रह' के अनुसार-आत्मा को निज शुद्ध स्वरूप में अवस्थित करना-प्रतपन करना-विजय प्राप्त करना-निश्चयतप है। व्यवहारनय की दृष्टि से व्यवहारतप के ये दो या बारह भेद किये गए हैं। इस दृष्टि से बाह्यतप वहाँ होता है जहाँ दृश्यमान स्थूलशरीर के स्तर पर तपःसाधना होती है और जहाँ मानसिक स्तर पर तपःसाधना होती है, वहाँ होता है-आन्तरिकतप। नय की दृष्टि से दोनों तप सापेक्ष होते हैं-एक को मुख्य और दूसरे को गौण समझा जाता है। आत्मिक विकास एवं आत्म-शक्ति की प्राथमिक भूमिका में मुख्यतया स्थूलशरीर के आधार पर तपःसाधना की जाती है। उसके फलस्वरूप तपःसाधक की योग्यता स्थूलशरीर को साधने के साथ-साथ प्राण (तैजस्) शरीर को भी साध लेने की हो जाती है। तैजसशरीर विकसित होने के साथ-साथ मानसशरीर इतना विकसित नहीं हो पाता। मानसिक स्तर की साधना जरा कठिन भी है। किन्तु जैसे ही स्थूलशरीर और तैजस् (प्राण) शरीर की साधना आगे बढ़ती है, मानसशरीर में भी विकास का प्रारम्भ होने लगता है। इसके लिए बाह्यतप के साथ-साथ आभ्यन्तरतप की साधना जरूरी हो जाती है। अन्यथा आभ्यन्तरतप निरपेक्ष केवल बाह्यतप शरीर को सुखाकर रह जाएगा, मानसिक विकास का प्रारम्भ नहीं होगा, मन नहीं सध पाएगा। उदाहरणार्थ, कोई व्यक्ति अनशनादि बाह्यतप करता है, किन्तु सम्भव है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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