SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ प्रायश्चित्त : आत्म-शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय 8 ३०९ 8 आभ्यन्तर तपश्चरण के साथ बाह्यतप भी आवश्यक यही कारण है कि भगवान महावीर ध्यान, कायोत्सर्ग आदि आभ्यन्तरतप के साथ-साथ बाह्य तपश्चरण भी करते थे। इसीलिए 'स्वयम्भू स्तोत्र' में कहा गया है“भगवन् ! आपने आध्यात्मिक तप-परिवृद्धि के लिए परम दुश्चर बाह्यतप किया है और आप आर्त्त-रौद्र दो कलुषित ध्यानों का निराकरण करके उत्तरवर्ती दो सातिशय ध्यानों में प्रवृत्त हुए हैं।" 'भगवती आराधना' में कहा गया है"अनशनादि बाह्यतप आभ्यन्तर परिणाम-शुद्धि का चिह्न (निशानी) है। जैसे किसी मनुष्य के मन में क्रोध उत्पन्न होता है, तब बाह्यचिह्न के रूप में उसकी भौंहें तन जाती हैं, इसी प्रकार बाह्य-आभ्यन्तरतपों में लिंग-लिंगीभाव समझना चाहिए।" 'मोक्षमार्ग प्रकाश' में दोनों तपों को आवश्यक बताते हुए कहा गया है-बाह्य (तपरूप) साधन होने पर अन्तरंग तप की वृद्धि होती है, इसलिए उपचार से उसे तप कहते हैं। जैसे-सोने को पहले तपाकर शुद्ध किया जाता है, उसके पश्चात् उस पर पॉलिश की जाती है, इसी प्रकार बाह्यतप से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और ऐन्द्रियक शुद्धि हो जाती है, फिर आभ्यन्तरतप से उस साधना में निखार आता है। बाह्यतप का महत्त्व इस दृष्टान्त से भी समझा जा सकता है-मान लो, किसी को घी, मक्खन आदि गर्म करके पिघलाकर शुद्ध करना है, उसका मैल निकालना है तो वह सीधा घी या मक्खन आग पर नहीं रखेगा, किन्तु किसी बर्तन में उन्हें रखकर ही गर्म करेगा और उनमें जो मैल है, उसे दूर करके शुद्ध कर सकेगा। यही बात बाह्यतप के विषय में समझनी चाहिए। बाह्यतपरूपी बर्तन को गर्म करने पर ही आन्तरिक तप द्वारा आत्मारूपी घृत या नवनीत से कर्मफल दूर होने से ही वह आत्मा शुद्ध होकर चमक उठेगी। यहाँ जो महत्त्व बर्तन का है, वही महत्त्व बाह्यतप का है। आभ्यन्तरतप के साथ बाह्यतप सहज या असहज रूप में होने पर सम्यक्तप की परिपूर्णता में कोई सन्देह नहीं रह जाता।' बाह्यतप और आभ्यन्तरतप दोनों एक-दूसरे के पूरक वैसे देखा जाए तो बाह्यतप और आन्तरिकतप दोनों एक-दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं कि दोनों अलग-अलग नहीं किये जा सकते। दोनों परस्पर पूरक हैं। दोनों १. (क) बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम्। ध्यानं निरस्य कलुषद्वयमुत्तरस्मिन् ध्यानद्वये ववृत्तिषेऽतिशयोपपन्ने॥ -स्वयंभू स्तोत्र ८३ (ख) लिंगं च होदि आब्भंतरस्स सोधीए बाहिरा सोधी। भिउडीकरणं लिंगं जहसंतो जदकोधस्स ॥ -भ. आ. १३५० (ग) मोक्षमार्ग प्रकाश ७/३४०/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy