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________________ ॐ ३०८ कर्मविज्ञान : भाग ७ बाह्यतप का महत्त्व आभ्यन्तरतप से कम नहीं अतः बाह्यतप का भी महत्त्व उतना ही है, जितना आभ्यन्तरतप का है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जो यह समझते हैं कि आभ्यन्तरतप के समक्ष बाह्यतप बिलकुल नगण्य है, उन्हें यह सोचना चाहिए कि बाह्यतप के द्वारा पहले तन, मन, वचन, इन्द्रियों और अंगोपांगों को साधा नहीं जाएगा, कष्ट सहिष्णु नहीं बनाया जाएगा, तो वे आभ्यन्तरतप के द्वारा आत्म-शुद्धि और कर्मफल को धोने में तथा कर्मों की निर्जरा करने में सहायक या साधक न होकर बाधक बन जायेंगे। जैसे अनशनादि चार बाह्यतपों में शरीर को भूख प्यास आदि सहने में सक्षम बनाया जाता है, उसी प्रकार इन्द्रियों को भी विषयों में राग-द्वेषरूपी भावरसों का मन से भी परित्याग करने, मन से भी इच्छा न करने के लिए तैयार किया जाता है, प्रतिसंलीनता तप द्वारा इन्द्रिय, कषाय, त्रिविधयोग तथा विविक्त शयनासनसेवनरूप प्रतिसंलीनता का - यानी बाह्याभिमुखता से रोककर आत्माभिमुख बनाने - अन्तर्लीन करने का कार्य नहीं किया जाएगा तो आगे अनभ्यस्त - अनघड़ या असंस्कृत म प्रायश्चित्त विनय, वैयावृत्य आदि में तथा स्वाध्याय, ध्यान एवं कायोत्सर्ग आदि आभ्यन्तरतपों में भी इन्द्रियाँ, मन बाहर भटकते रहेंगे, इसीलिए इन्द्रि प्रतिसंलीनता का अर्थ है - पाँचों इन्द्रियों की ओर दौड़ने से रोकना, विषयों की ओ उन्मुख नहीं होना तथा सहजरूप में आवश्यकतानुसार विषयों से इन्द्रियाँ जब-ज जुड़ जाएँ, तब-तब उन उन विषयों के प्रति राग-द्वेष करना। इसी प्रकार चार कषायों की प्रतिसंलीनता का अर्थ है - उदय में आए हुए ( उत्पन्न हुए) क्रोध कषायों को विफल बनाना, मार्गान्तरीकरण करना और क्रोधादि के उदय को है। शान्त करना। यानी उदय में आने से पहले ही शान्ति ( उपशम), दम, क्षमा, मृदुता, नम्रता, ऋजुता आदि का अभ्यास करना। तीनों योगों - मन-वचन-काया को भी अन्तर्लीन बनाना योगप्रतिसंलीनता है तथा जनता की भीड़ जुटाने, प्रशंसा और प्रसिद्धि पाने तथा धुँआधार प्रचार करने की लालसा को इच्छा को रोककर एकान्तशान्त, निराबाध स्थान में आत्म-चिन्तन, ध्यान, मौन आदि के अभ्यास के लिए प्रतिसंलीन होना विविक्तशय्यासन - प्रतिसंलीनता है। इससे तपः साधक व्यर्थ के क्लेश, झंझटों, प्रपंचों तथा दुनियाँदारी के दाँवपेंचों से बचकर कर्मबन्ध होने से आत्मा को बचा लेता है। कायक्लेशरूप बाह्यतप आभ्यन्तरतप में कैसे सहायक-साधक होता है ? इसके सम्बन्ध में पहले हम बता आए हैं। ऊनोदरीतप के द्रव्य-भाव यों दो भेद करके 'उववाईसूत्र' में भावऊनोदरी के विषय में बताया गया है - क्रोध, मान, माया, लोभ को कम करना, शब्दों का प्रयोग तथा कलह कम करना, यह है भाव उनोदरी । अतः ऊनोदरीतप भी आभ्यन्तरतप में सहायक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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