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प्रायश्चित्त: : आत्म-: -शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय ३०७
और सूक्ष्मशरीर को सीधा प्रभावित करने वाला तप आभ्यन्तरतप है । बाह्यतप नाम इसलिये रखा गया है कि यह बाहरी सामग्री से सम्बन्ध रखता है तथा बाह्य शरीर को तपाता है, शरीरगत माँस, मज्जा, अस्थि, रक्त आदि को सुखाता है, ताकि शरीर का ध्यान कम होकर आत्मा के प्रति ध्यान बढ़े, शरीर और आत्मा का भेदविज्ञान हृदयंगम हो जाए, कायोत्सर्गतप करने में आसानी हो ।
बाह्य तथा आभ्यन्तरतप का लक्षण
बाह्य और आभ्यन्तरतप का लक्षण करते हुए 'सर्वार्थसिद्धि’ और ‘अनगार धर्मामृत' में कहा गया है–बाह्यतप बाह्य द्रव्यों के अवलम्बन से होता है और दूसरों के देखने में आता है इसलिए इसे बाह्यतप कहते हैं, जबकि मन का नियमन करने वाले होने से प्रायश्चित्त आदि को आभ्यन्तरतप कहते हैं। प्रायश्चित्तादि तपों में बाह्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं रहती, उनमें अन्तरंग परिणामों की मुख्यता रहती है तथा इनका स्वयं ही संवेदन होता है, ये दिखने में प्रायः नहीं आते, इस कारण इनसे अनभिज्ञ लोग इन्हें धारण नहीं कर पाते। इस कारण इन्हें अन्तरंग तप कहा जाता है।'
रुचि, क्षमता और योग्यता के अनुसार : बाह्याभ्यन्तरतप
तात्पर्य यह है कि संसार में विभिन्न रुचि और क्षमता के लोग होते हैं। कुछ लोग उपवास आदि बाह्यतप आसानी से कर लेते हैं, कुछ नहीं कर सकते। वे ध्यान, आत्म-चिन्तन में अधिक समय तक बैठ सकते हैं। इसलिए योग्यता, क्षमता और रुचि के अनुसार बाह्य और आभ्यन्तर ये दो प्रकार बताने के अतिरिक्त इनके प्रत्येक के ६-६ भेद भी बताए हैं। आम आदमी प्रायः स्थूलदृष्टि होते हैं, वे देखना चाहते हैं - मूर्तरूप । यानी अमुक तप करने से क्या बना, क्या हुआ ? देहासक्ति घटी 'या नहीं? भेदविज्ञान सधा या नहीं ? सूक्ष्मरूप की ओर उनका ध्यान सहसा नहीं जाता। ऐसे लोग प्रायः बाह्यतप का अवलम्बन लेते हैं किन्तु जो तत्त्वज्ञानी और आत्मदर्शी होते हैं, वे प्रायः आभ्यन्तरतप का आलम्बन लेते हैं, वे सीधे ही कर्मशरीर को प्रभावित करने के लिए तप के सूक्ष्म रूप को पकड़ते हैं । इसलिए भगवान महावीर ने तप के सर्वग्राही दृष्टिकोण को प्रगट करने हेतु इसकी बारह प्रकार की साधना-पद्धतियाँ बताई हैं।
१. (क) बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात् परप्रत्यक्षत्वात् च बाह्यत्वम्। मनो-नियमनार्थत्वात्।
(ख) बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वात् स्व-संवेद्यत्वतः परैः ।
अनध्यासात्तपः प्रायश्चित्ताद्यभ्यन्तरं भवेत् ॥
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कथमस्याभ्यन्तरत्वम् ?
- सर्वार्थसिद्धि ९/१९-२०/४३९/३, ६
- अनगार धर्मामृत ७/३३
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