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________________ ॐ २९८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ धर्म-पालन के लिए उत्साह जगता है, उसके मुकाबले में वह पीड़ा या दुःख कुछ भी नहीं है। किसान को बीज बोने से लेकर फसल काटने तक में सर्दी, गर्मी, वर्ष आदि के कितने कष्ट सहने पड़ते हैं। मगर अनाज की फसल प्राप्त करने पर उसे जो आल्हाद मिलता है, उसके सामने वह इन प्रकृतिकृत दुःखों को नगण्य मानता है। सार्थवाह वणिक् सुदूर परदेश में जाकर वहाँ उत्पन्न माल लाते हैं और जहाँ वे चीजें नहीं पैदा होतीं, वहाँ ले जाकर बेच देते हैं। उन्हें दूर-सुदूर यात्रा में बड़े-बड़े भयंकर जंगलों, नदियों, पहाड़ों से गुजरकर जाना पड़ता है। रास्ते में कई जगह पड़ाव डालने पड़ते हैं। कभी-कभी चोरों, लुटेरों आदि से बचने के लिए रात्रि-जागरण भी करना पड़ता है। मगर अर्थलाभ का जो सुख प्राप्त होता है, उसके समक्ष इन कष्टों को वे कुछ भी नहीं गिनते।' रत्न आदि के व्यवसायियों को एक जनपद से दूसरे जनपद में माल बेचने हेतु जाने में काफी जोखिम, भय, भूख, प्यास आदि का दुःख उठाना पड़ता है। परन्तु अभीष्ट सिद्धि के सामने वे इन दुःखों को भूल जाते हैं। माता अपने पुत्र के पालन-पोषण में होने वाले कष्ट को बिलकुल भूलकर वात्सल्य रस का आनन्द पाती है। इसी प्रकार अनशनादि बाह्यतप तथा प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप सम्यग्ज्ञानपूर्वक करने वाले भी अपने कर्ममक्तिरूप मोक्ष-लक्ष्य की अभीष्ट सिद्धि के लिए विविध सम्यक्तप करने में शारीरिक, मानसिक कष्टों को प्रसन्नतापूर्वक सहते हैं। उन आत्मार्थी मुमुक्षु साधकों को कर्मनिर्जरा करने में आनन्द की अनुभूति होती है। कर्मरूपी महारोग का, भव-भ्रमण का दुःख तथा पुनः-पुनः जन्म, जरा, मृत्यु एवं व्याधि के दुःखों के समाप्त होने तथा करोड़ों वर्षों से संचित कर्मों के क्षय होने से आत्मा की उज्ज्वलता एवं पवित्रता का तथा आत्मा के निजी गुणों के अनावरण (प्रकट) होने से एवं भगवद्वचनानुसार सम्यक्तप से पूर्वबद्ध कर्मों का नाश तथा आत्म-विशुद्धि का परम लाभ मिलने से तपश्चरण से होने वाले विविध शारीरिक-मानसिक दुःखों को वे याद भी नहीं करते। किस बाह्यतप से क्या-क्या प्रयोजन सिद्ध होते हैं ? : एक आकलन स्थूलशरीर द्वारा बाह्यतप से कर्मशरीर को तपाने, क्षीण करने पर आत्म-शुद्धि की दृष्टि से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है? इस विषय में भी विचार कर लेना १. 'अखण्ड ज्योति, जनवरी १९७६' से भाव ग्रहण २. याऽपि चाशनादिभ्यः कायपीड़ामनाक् किंचित्। व्याधिक्रियासमा सोऽपि, नेष्टसिद्ध्याऽत्र वाधिनी।। दृष्टा चेष्टार्थसंसिद्धौ कायपीड़ा ह्यदुःखदा। रत्नादि वणिगादीनां तद्वदत्राऽपि भाव्यताम्।। -अभिधान राजेन्द्रकोष, भा. ४, पृ. २२0१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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