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ॐ सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप ® २९९ 8
चाहिए। ‘उत्तराध्ययनसूत्र' में स्पष्ट कहा गया है-“(कर्ममुक्ति का साधक) संसार से ऊर्ध्व (मोक्ष के लक्ष्य) को लेकर चलने वाला हो, उसे कदापि बाह्य (आत्म-बाह्य पर-भावों या विषयों) की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। वह (कर्ममुक्ति-साधक) पूर्वकृत कर्मों के क्षय के लिए ही इस देह को धारण करे।'
अतः साधक पूर्व-संचित कर्मों का क्षय करके आत्म-शुद्धि को उपलब्ध होकर मन, वचन, काया, इन्द्रियाँ आदि की प्रवृत्तियों पर बाह्यतप द्वारा नियंत्रण करता है। उनसे निम्नोक्त प्रयोजन सिद्ध होता है और आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त होता है
अनशनतप से-संयम-प्राप्ति, शरीर के प्रति राग (आसक्ति और मोह) का नाश, कर्ममल-विशोधन, सुध्यान की योग्यता एवं स्वस्थ शरीर से शास्त्राध्ययन आदि प्रयोजन सिद्ध होने सम्भव हैं।
ऊनोदरीतप से-संयम में सावधानी, जागृति, आत्म-चिन्तन में उत्साह, वातादि दोषों का शमन, ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय आदि प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं।
वृत्ति-संक्षेप या वृत्ति-परिसंख्यान से-भोजन-सम्बन्धी आसक्ति पर नियंत्रण, आहार के लिए अभिग्रहयुक्त प्रयोग, त्याग-प्रत्याख्यान की शक्ति और दृढ़ता, चिन्ता, उद्विग्मता आदि पर या आवेगों पर नियंत्रण आदि प्रयोजन सिद्ध होते हैं।
रस-परित्याग से-पंचेन्द्रिय-निग्रह, स्वादवृत्ति पर विजय, निद्रा-विजय, स्वाध्याय, ध्यान, आत्म-चिन्तन में एकाग्रता आदि प्रयोजन सिद्ध होते हैं।
— कायक्लेश से शारीरिक कष्ट-सहिष्णुता, मनोवृत्ति में उदारता, शारीरिक सुखवाञ्छा से मुक्ति, शरीर कष्ट के लिए सध जाता है, अव्यथित रहता है, सुख-दुःख में समभाव आदि प्रयोजन सिद्ध होते हैं। - प्रतिसंलीनता से-पंचेन्द्रिय-संयम, इन्द्रियों और मन की अन्तर्मुखता, आत्म-सेवा संलग्नता, बाधाओं से मुक्ति, ब्रह्मचर्यसिद्धि, स्वाध्याय, ध्यान आदि में संलीनता' एकाग्रता आदि प्रयोजन सिद्ध होते हैं।
देहासक्ति तोड़ने के लिए स्थूलशरीर द्वारा बाह्यतप करना आवश्यक कर्ममुक्ति के लिए सर्वाधिक प्रभावशाली तत्त्व है-तप। कर्मों को दूर करनेनष्ट करने में बाधक तत्त्व है-लोभ। लोभकषाय के अन्तर्गत वासना, तृष्णा, ममता,
१. (क) बहिया उड्ढमादाय, नावकंखे कयाइ वि। पुव्वकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे।।
-उत्तराध्ययन, अ. ६, गा. १४ (ख) 'जैन भारती, मई १९८९' में प्रकाशित 'तप : क्या. क्यों?' लेख से साभार ग्रहण,
पृ. २७५
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