SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप ® २९७ ॐ थे, वे पूरे समाप्त नहीं तो अत्यन्त मन्द एवं अल्प हो जाते हैं। स्वेच्छा से आहार का परित्याग या व्युत्सर्ग (प्रत्याख्यान) होने से कर्मबन्ध का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। यह अनशनादि चारों के प्रथम वर्ग द्वारा कर्मशरीर पर प्रभाव है।' कायक्लेश में आसनादि द्वारा शरीर के विशेष स्थानों, चक्रों या मर्मस्थानों को जाग्रत किया जाता है, जिनका मूल कर्मशरीर में है, किन्तु स्थूलशरीर को आसनादि प्रक्रिया द्वारा साधे जाने से, कसे जाने से, सुदृढ़ और स्थिर हो जाने से वे परीषहादि कष्टों को समभाव से सहने में सक्षम हो जाते हैं, फलतः कर्मशरीर को शक्ति नहीं मिलती। फिर प्रतिसंलीनता से इन्द्रियों और मन आदि को बहिर्मुखी बनने से रोग देने और अन्तर्मुखी-अन्तर्लीन कर देने से कर्मशरीर को खुराक मिलनी बंद हो जाती है। निष्कर्ष यह है कि स्थूलशरीर के द्वारा किये जाने वाले इन तीनों वर्गों के तप-विशेष का प्रभाव कर्मशरीर तक पड़ता है। कर्मनिर्जरा (कर्मक्षय) हो जाती है। यदि इन तीनों का प्रभाव कर्मशरीर पर नहीं पड़ता तो ये सम्यक्तप की कोटि में नहीं आते। तपाने की प्रक्रिया बाहर की ओर से होती है, इसलिए इन्हें बाह्यतप कहा गया है। तप से होने वाले परम लाभ के मुकाबले में कष्ट नगण्य यद्यपि अनशनादि तथा कायक्लेश और प्रतिसंलीनतारूप बाह्यतप से शरीर, इन्द्रियों, अंगोपांगों तथा मन की इच्छाओं पर काफी नियंत्रण किया जाता है। इनसे होने वाले कष्टों का सहन प्रारम्भ में बहुत ही अखरता है। शारीरिक और मानसिक सुख-सुविधाओं और इच्छाओं में काफी कटौती करनी पड़ती है, परन्तु शान्ति और धैर्यपूर्वक इन कष्टों को सह लेने से स्थूलशरीर कर्मशरीर द्वारा मिलने वाले दण्ड एवं दुःखों से बच जाता है और कर्मनिर्जरा करके आध्यात्मिक शुद्धि एवं विकास में उपयोगी बनता है। जैसे किसी दुःसाध्य रोगी को शल्य-चिकित्सा (ऑपरेशन) कराने में तथा रोग की पीड़ा मिटाने हेतु विविध उपचार लेने में काफी कष्ट तथा शरीर और मन को सन्ताप होता है, परन्तु स्वास्थ्य-लाभ होने तथा शरीर के सशक्त एवं स्वस्थ होने से दुःख, निश्चिन्तता, शान्ति और प्रसन्नता मिलती है, १. देखें-आचारांग में स्वादवृत्ति पर विजय की प्रेरणा से अणासादमाणे लाघवियं आगममाणे।। ____ तवे से अभिसमण्णागए भवति॥ -आचारांग, श्रु. १, अ. ८, उ. ६, सू. २२३ २. (क) बाह्यशरीर-परिशोषणेन कर्मक्षपणहेतुत्वात् इति। -समवायांगसूत्र, समवाय ६ वृत्ति (ख) 'तत्त्वार्थसूत्र विवेचन' (उपाध्याय श्री केवल मुनि जी) से भाव ग्रहण (ग) 'महावीर की साधना का रहस्य' से भावांश ग्रहण, पृ. २६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy