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________________ * सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप 8 २९५ ® 'सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा है-जो महामुनि महान् कुलों में जन्म लेकर मुनिदीक्षा लेकर चारित्रवान् होकर पूजा, सत्कार के लिए तप करते हैं, उनका तप निष्फल और अशुद्ध जानना। इसके विपरीत जो महामुनि अन्य कोई गृहस्थादि जान न पाए, इस प्रकार से तप करते हैं तथा अपनी प्रशंसा एवं श्लाघा स्वयं नहीं करते, उनका तप' शुद्ध और आत्म-हितकर जानना।२ बाह्यतप के छह प्रकार और उनका स्वरूप -स्थूलशरीर से होने वाले बाह्यतप के छह प्रकार हैं-(१) अनशन, (२) अवमौदर्य या ऊनोदरिका, (३) वृत्ति-संक्षेप, (४) रस-परित्याग, (५) संलीनता या प्रतिसंलीनता, और (६) कायक्लेश। इन छह प्रकार के बाह्यतपों को हम तीन भागों में वर्गीकृत कर सकते. हैं-(१) अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति-संक्षेप और रस-परित्याग, इन चारों का समावेश एक वर्ग में; दूसरे वर्ग में कायक्लेश और तीसरे वर्ग में प्रतिसंलीनता का समावेश हो जाता है। (१) अशन का अर्थ हैअशन (ऐ भरा जा सके, ऐसे अन्नादि खाद्य पदार्थ), पान (जल आदि पेय पदार्थ), खादिम , वा, मिष्टान्न आदि) और स्वादिम (मुख को सुवासित करने वाले इलायची आदि पदार्थ) अशन से ये चारों प्रकार के भोज्य-पदार्थां अनशन का अभिप्राय है-इन चारों प्रकार के भोज्य पदार्थों का त्याग। अनशन भी तभी तप कहलाता है, जब किसी लौकिक या सांसारिक प्रयोजन से रहित होकर एकमात्र कर्मनिर्जरा (आत्म-शुद्धि) का लक्ष्य हो। अन्यथा वह लंघन या भोजन-त्याग कहलाता है। इसके मुख्य दो भेद हैं-इत्वरिक (थोड़े समय के लिए) उपवास, बेला आदि तप हैं। यावत्कत्थिक अनशन में यावज्जीव चारों आहार और शरीरपरिकर्म का त्याग किया जाता है। (२) अवमौदर्य (ऊनोदरी) तप का अर्थ है-भूख से कम खाना। ऊनोदरी का वास्तविक अभिप्राय कम करना है। वह कभी भोजन, वस्त्र, उपकरण तथा मन-वचन-काया के योगों की चपलता में की जाती है। यह द्रव्य-ऊनोदरी है। भाव-ऊनोदरी में क्रोधादि चार कषायों-राग, द्वेष, क्लेश तथा वचन में अल्पता की जाती है। (३) वृत्ति-परिसंख्यान या वृत्ति-संक्षेप का अर्थ हैभोज्य-द्रव्यों को संक्षिप्त-सीमित करना, सीमा बाँधना। १४ नियमों का चिन्तन भी इसी तप के अन्तर्गत आता है। साधु के लिए भिक्षाचरी तप कहा गया है, जिसमें विभिन्न प्रकार के अभिग्रहपूर्वक भिक्षा की जाती है। वास्तव में वृत्ति-संक्षेप का १. तेसि पि तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला। . जं नेवन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जए।। -सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. ८, सू. २४ २. 'प्रश्नोत्तर मोहनमाला, भा. ८' (प्रयोजक-पू. श्री मोहनलाल जी म.) से भाव ग्रहण, पृ. ४४०-४४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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