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________________ ॐ २९४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ® रहित होकर बरवश कष्ट सहन करके अकामतप करता है, जो तप का अर्थ, स्वरूप, प्रयोजन या विधि समझे बिना अज्ञानपूर्वक, हिंसा-अहिंसा, हिताहित के अविवेकपूर्वक अज्ञानतप करता है, जो इहलोक में धन, पुत्र, प्रसिद्धि, सत्ता, स्वास्थ्य या शारीरिक-मानसिक दुःख-निवारण आदि किसी आशा से अथवा परलोक में दिव्यऋद्धि, सुख, देवांगना आदि की प्राप्ति की आशा से आशीतप करता है या इहलौकिक-पारलौकिक कामभोगों की इच्छा से नियाणा करके निदानतप करता है अथवा यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा, शोभा, प्रशंसा आदि के लिए कीर्तितप करता है या फिर अपने किसी निकृष्ट तुच्छ स्वार्थ की सिद्धि के लिए । स्वार्थीतप करता है अथवा कोई व्यक्ति अपने विरोधी या शत्र पर द्वेष या ईर्ष्या से प्रेरित होकर तप के प्रभाव से उसका अनिष्ट करता है या अनिष्ट मंत्र, तंत्र, मूढ़ आदि प्रयोग करके दूसरों के जानमाल को नष्ट करते हुए वैतालीतप करता है या अज्ञानतावश प्रति क्षण दिल में जलता रहता है, द्वेष, ईर्ष्या या क्रोध से प्रज्वलित रहता है, क्रोध, अहंकार, लोभ एवं आवेश में अन्धा हो जाता है, इस प्रकार की बात-बात में सरापीभावना श्राप देने को तैयार रहता है, उसका तप सरापी (तामसी) तप है अथवा मन में आत-रौद्रध्यानवश संक्लेशवश हर जगह झगड़े, कलह, फूट, द्वेष कराता है या उद्विग्नता, तनाव आदि के कारण संक्लेशतप करता है या फिर माया, कपट सहित मायीतप करता है या जन्म-जन्मान्तर तक चले, ऐसा रोष, द्वेष, कलह करके, दयारहित होकर दूसरों को संताप देने वाला आसुरीभावनायुक्त तप करता है तो ये सभी तप पापकर्मबन्धक होने से आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति को, शान्ति को नष्ट कर देते हैं। . अशुद्ध तप और शुद्ध तप का विवेक इसी प्रकार पूजा-श्लाघावश तप करना भी अज्ञानतप है। कहा भी है-"जो अल्पबुद्धि वाला व्यक्ति पूजा, लाभ या प्रसिद्धि के लिए तप करता है, वह केवल शरीर को ही सुखाता है, उसे तपश्चर्या का वास्तविक फल नहीं मिलता। विवेकरहित तप करने से केवल शरीर को ही ताप होता है। वह केवल अज्ञानकष्ट है। उससे संसारवृद्धि के सिवाय अधिक कोई शुभ फल नहीं मिलता।" -भगवती आराधना, गा. ८८ १. अणुबंध-रोस-विग्गह-संसत्त-तवो णिमित्त-पडिसेवी। णिक्किव-णिराणुतावी आसुरियं भावणं कुणइ।। २. पूजालाभप्रसिद्ध्यर्थं तपस्तपेद् योऽल्पधीः। शीष एव शरीरस्य, न तस्य तपसः फलम्॥ विवेकेन विना यच्च, तत्तपस्तनुतापकृत्। अज्ञानकष्टमेवेदं, न भूरि फलदायकम्।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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