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* सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण: सम्यक्तप २९३
(१) उग्रतप, (२) दीप्ततप, (३) तप्ततप, (४) महातप, (५) घोरतप, (६) लब्धितप, (७) संभावी (समभावी ) तप, (८) निर्जरातप, ( ९) सकामतप, (१०) अकामतप, (११) ज्ञानतप, (१२) अज्ञानतप, (१३) आशीतप, (१४) निराशीतप, (१५) निदानतप, (१६) स्वार्थीतप, (१७) कीर्तितप, (१८) सरागीतप, (१९) वैतालीतप, (२०) सरापीतप, (२१) क्लेशीतप, (२२) मायीतप, और (२३) आसुरीभावनातप ।
सम्यग्ज्ञानयुक्त तप भगवदाज्ञा में और अज्ञानयुक्त तप आज्ञाबाह्य
इनमें से जो सम्यग्ज्ञानयुक्त २३ प्रकार के तप हैं, वे भगवदाज्ञा में हैं और शेष १२ प्रकार के जो तप अज्ञान - मिथ्याज्ञान- मिथ्यादर्शनयुक्त हैं, वे भगवद्- आज्ञाबाह्य हैं। पूर्वोक्त २३ प्रकार के सम्यक्तपों में से उग्रतप, दीप्ततप, तप्ततप, महातप और घोरतप, ये पाँच तप गौतमस्वामी जैसी उत्कृष्ट करणी करने वालों के लिए कहे गये हैं। इनके अतिरिक्त सम्यग्ज्ञानयुक्त तप, लब्धितप, संभावी (समभावी ) तप, निर्जरातप, सकामतप, निराशीतप, ये छह तप पूर्वोक्त तपों सहित ६ + ५ = कुल ११ तप पूर्वोक्त जिनप्ररूपित १२ बाह्य - आभ्यन्तर तपों में समाविष्ट हो जाते हैं। इनके अतिरिक्त अकामतप, अज्ञानतप, आशीतप, निदानतप, स्वार्थीतप, कीर्तितप, सरागीतप, वैतालीतप, सरापी ( तामसी ) तप, क्लेशीतप, मायीतप और आसुरीभावनातप; ये १२ प्रकार के तप आत्मा के लिए अहितकर, आत्म- गुणों की हानि करने वाले तथा कर्मों की निर्जरा और मुक्ति से दूर रखने वाले हैं; कर्मबन्ध कर्ता हैं, इसलिए भगवद्- आज्ञाबाह्य हैं, जबकि पूर्वोक्त २३ प्रकार के सम्यग्ज्ञानयुक्त जिनोक्त सम्यक्तप आत्म- हितकर, आत्म-गुणवर्द्धक, आत्मा को निर्मल करने वाले, कर्मनिर्जराकारक और मोक्ष (सर्वकर्ममुक्तिरूप) फलदायक हैं। 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में कहा गया है - जो साधक इहलौकिक और पारलौकिक सुखभोग से निरपेक्ष होकर, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, तृण-मणि, निन्दा-प्रशंसा आदि द्वन्द्वों पर राग-द्वेषरहित होकर समभावपूर्वक धर्मपालन हेतु कायकष्ट को सहते हैं, उनका वह तपो धर्म शुद्ध और निर्मल है। यह समभावीतप है । '
अज्ञानतप: संवर, निर्जरा और मोक्ष में बाधक : क्यों और कैसे ?
पूर्वोक्त १२ प्रकार के अज्ञानतप संवर, निर्जरा और मोक्ष में बाधक तथा आत्मा - गुणों की हानि करने वाले क्यों हैं? इसके लिए इनके अर्थों पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट प्रतीत हो जाएगा। जो व्यक्ति अनिच्छा से, कर्ममुक्ति के लक्ष्य से
१. इह-परलोक - सुखानां, निरपेक्षः, यत्करोति समभावः । विविधं कायक्लेशं तपोधर्मो निर्मलस्तस्य ॥
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- कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. ४००
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