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________________ * सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप 8 २९१ * जाते हैं।' 'भगवदगीता' में भी कहा है-निराहार से शरीरधारी के इन्द्रिय-विषय छूट जाते हैं, किन्तु विषयों का रस नहीं छूटता। उनका रस परम (शुद्ध आत्मा = परमात्मा) को देखकर निवृत्त होता है। स्थूलशरीर द्वारा प्रतिसंलीनता नामक बाह्यतप से इनका रस छूट सकता है। इसके लिए इन्द्रिय-विषयों और पदार्थों के प्रति आसक्ति का त्याग जरूरी है। स्थूलशरीर को ही क्यों तपाया जाए ? एक प्रश्न रह-रहकर कुछ लोगों को कुरेदता है कि यदि कर्मशरीर को ही धुनना, प्रकम्पित करना, प्रतप्त करना या क्षीण करना है तो कोई अन्य उपाय नहीं है, जिसके माध्यम से कर्मशरीर को सीधे ही (Direct) प्रकम्पित या प्रतप्त किया जा सके ? बेचारे स्थूलशरीर को ही क्यों तपाया या कष्ट दिया जाए? उससे हमारा क्या विरोध है ? उसने हमारा क्या बिगाड़ा है ? स्थूलशरीर को तपाने से कितना लाभ, कितनी हानि ? इसका एक समाधान तो यह है कि तैजस् और कार्मणशरीर इतने सूक्ष्म और सूक्ष्मतर हैं कि अतीन्द्रिय ज्ञानी के सिवाय अन्य व्यक्तियों को इन चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देते, इसलिए वे पकड़ में नहीं आते, जबकि स्थूलशरीर प्रत्यक्ष है, दृश्यमान है, इसलिए सब की पकड़ में आ जाता है। इसी कारण कर्ममुक्ति के साधक द्वारा सर्वप्रथम स्थूलशरीर को ही तपाया जाता है, ताकि वह सूक्ष्मतम (कार्मणशरीर) को तपा सके और कर्मक्षय करके आत्मा को परिशुद्ध कर सके। __कर्ममुक्ति के साधक द्वारा स्थूलशरीर को तपाने का दूसरा समुचित कारण यह है कि वह कर्मविज्ञान द्वारा यह जानता है कि संसार की सजीव-निर्जीव वस्तुओं तथा इन्द्रिय-विषयों पर प्रियता-अप्रियतायुक्त या राग-द्वेष से या कषाय से युक्त · चिन्तन करता है-मन; उससे कर्मबन्ध होता है, उसका फल भोगना पड़ता हैस्थूलशरीर को। काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, मद, मत्सर, ईर्ष्या आदि मनोजनित पापकर्मों का कटुफल भी स्थूलशरीर को भोगना पड़ता है-दु:खवेदन या शरीरादि अंगोपांगों में विकलता, बुद्धि-मन्दता आदिरूप में। हिंसा, असत्य भाषण, चौर्यकर्म, ब्रह्मचर्यभंग, परिग्रहवृत्ति आदि सब पापकर्मों का चिन्तन करता है-मन, किन्तु १. (क) 'महावीर की साधना का रहस्य' से भाव ग्रहण, पृ. २६२-२६३ (ख) आहारवर्जिते देहे धातुक्षोभः प्रजायते। - तत्र काऽधिकसत्त्वोऽपि चित्तभ्रंशं समश्नुते। -अभिधान रा. कोष, भा. ४, पृ. २२0१ २. विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः, रसवर्ज, रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते। --भगवद्गीता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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