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ॐ २९० ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ®
समय) में नष्ट कर डालता है।'' अतः बालतप से स्थूलशरीर को कष्ट देकर भी अज्ञानी-साधक मोक्ष लाभ नहीं कर सकता। बाह्य-आभ्यन्तर तप से असमाधि या समाधि ? : एक अनुचिन्तन
सम्यक्तप के सम्बन्ध में फिर शंका होती है कि धन्ना अनगार, स्कन्दक अनगार आदि अनेक तपस्वियों की तपःसाधना से जब उनका शरीर सूख जाता है, माँस, रक्त भी अत्यल्प हो जाता है, शरीर केवल अस्थिपंजर रह जाता है, ऐसी स्थिति में स्थूलशरीर को सुखाने, तपाने, अत्यन्त क्षीण करने से तन-मन कैसे शान्त । एवं समाधिस्थ रह सकता है ? शरीर जब अस्वस्थ एवं अशान्त हो तो ऐसे तप से समाधि कैसे प्राप्त हो सकती है? शरीर स्वस्थ और शान्त हो, तभी समाधि मिल सकती है, ऐसा शरीरशास्त्रियों का मत है। उनका यह आक्षेप है-“आहार से रहित देह में धातु क्षोभ उत्पन्न होता है। आहार के अभाव में प्रबल सत्त्वशाली व्यक्ति का भी चित्तभ्रंश हो जाता है।" ___ उपर्युक्त आक्षेप अनुभवरहित है। यह कथन परमार्थ से अनभिज्ञ व्यक्तियों का है। जो व्यक्ति सम्यग्दृष्टि एवं सम्यग्ज्ञान से रहित हैं, जिन्होंने आगमों का श्रवण-वाचन-मनन नहीं किया है या नवतत्त्वों के रहस्य से अज्ञात हैं तथा जिनका लक्ष्य कर्मों से मुक्ति पाना नहीं है, जो भूख-प्यास के या अन्य कष्टों को सहन करने से घबराते हैं अथवा भूख-प्यास आदि या अन्य कष्ट भी अनिच्छा से या स्वर्गादि के लोभ से अथवा कषायवश होकर सहते हैं, वे ही ऐसा आक्षेपात्मक प्ररूपण करते हैं। आहारग्रहण से शक्ति और ऊष्मा के उपरांत उत्तेजना भी होती है __ इतना तो शरीरशास्त्री भी मानते हैं कि आहारग्रहण करने से दो कार्य निष्पन्न होते हैं-शक्ति-प्राप्ति और ताप-उत्पत्ति। यानी आहार से शरीर में शक्ति और गर्मी प्राप्त होती है। किन्तु इन दो के अतिरिक्त भी आहार शरीर के अन्तर्गत विभिन्न केन्द्रों में उत्तेजना भी पैदा करता है, उनमें सक्रियता लाता है। शरीर में जितने भी काम-वासनाकेन्द्र, इच्छाकेन्द्र, कषायादि आवेगकेन्द्र अथवा स्मृतिकेन्द्र हैं तथा पाँचों इन्द्रियों तथा मन से होने वाले ज्ञान के केन्द्र हैं, आहार के कारण ये सब केन्द्र उत्तेजित-विकारग्रस्त हो जाते हैं। यदि शरीर को आहार (भोजन) न मिले तो ये सब केन्द्र मन्द, शिथिल और शान्त हो जाते हैं। इन्द्रियों और मन को मनोज्ञ विषयरस प्राप्त नहीं होता है, तब उनमें उत्तेजना या सक्रियता अथवा विकारवशता नहीं होती। मन शान्त होता है, तब राग-द्वेष, कषाय आदि विकार भी अतिमन्द हो १. जं अण्णाणी कम्मं, खवेदि भवसय-सहरस-कोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ उस्सासमेत्तेण।।
-प्रवचनसार ३/३८
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