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* अप्रमाद-संवर का सक्रिय आधार और आचार * ११ *
लापरवाही) न करे।" इसी प्रकार उन्होंने कहा-“प्रमत्त प्राणियों को शारीरिक, मानसिक दुःखों से आतुर देखकर साधक सतत अप्रमत्त होकर विचरण करे।"१
इन्द्रिय-विषयों के प्रति प्रमाद के कारण जीवों की दुर्दशा प्रमाद से जीव को कितनी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक हानि होती है? इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। हिरण वैसे तो इतना तेज दौड़ता है कि किसी के पकड़ में सहसा नहीं आता, किन्तु कोई मधुर राग-रागिनियों की तान छेड़ दे तो वे तुरन्त नजदीक आ जाते हैं, संगीत श्रवण में इतना मुग्ध और लुब्ध हो जाते हैं कि उन्हें भान ही नहीं रहता, उसी शब्द-विषयक प्रमाद के कारण वे पकड़ लिये जाते हैं, कहीं-कहीं मार भी दिये जाते हैं। हाथी बहुत ही बलिष्ठ और बुद्धिमान प्राणी है, किन्तु उसे पकड़ने के लिए लोग बहुत गहरा गड्ढा खोदते हैं, उसमें कागज की उसी आकार की हथिनी बनाकर रखते हैं। दूर से वह हू-बहू हथिनी जैसी लगती है, हाथी स्पर्शेन्द्रिय विषयक कामवासना से लुब्ध होकर उस कागज की हथिनी की ओर दौड़ लगाता है, कामवासना के आवेश में भान भूलकर ज्यों ही वह हथिनी का स्पर्श करने जाता है, स्वयं गड्ढे में गिर पड़ता है। हाथी को पकड़ने वाले लोग उसे बन्धन में जकड़ लेते हैं। इसी प्रकार पतंगा वैसे तो उड़ने वाला स्वतंत्र जीव है, किन्तु ज्यों ही प्रकाश का रूप देखता है, प्रमादवश अंधा होकर उस पर टूट पड़ता है, फलतः अपने प्राण गँवा बैठता है और भौंरा इतना शक्तिशाली है कि काष्ठ को भेदन कर सकता है, किन्तु वही भौंरा सुगन्ध के लोभ में कमल के कोष में बंद हो जाता है और इस प्रमादवश अपने प्राण खो बैठता है। मछली पानी में रहती है, उसे पकड़ पाना मनुष्य के लिए आसान नहीं है, किन्तु लोहे काँटे पर जब मच्छीमार आटे की गोली लगा देता है तो उसका स्वाद पाने
और खाने के लोभ में मछली उसी पर मुँह मारती है और काँटा उसके मुँह को बींध डालता है, वह पकड़ ली जाती है और पानी से बाहर निकालते ही कुछ ही देर में मर जाती है। यों क्रमशः प्रमाद के वशीभूत होकर एक-एक इन्द्रिय के विषय में आसक्त जीव अपनी मृत्यु को निमंत्रण दे देते हैं, तो जो व्यक्ति प्रमादवश पाँचों
१. (क) अहो य राओ य जयमाणे धीरे सया आगत-पण्णाणे।
पमत्ते बहियापास, अपमत्ते सया परक्कमेज्जासि॥ -आचारांग, श्रु. १, अ. ४, उ. १ (ख) उट्ठिए णो पमायए। एस मग्गे आरिएहिं पव्वेइए। -वही, श्रु. १, अ. ५, उ. २ (ग) अणण्णपरमं नाणी णो पमाए कयाइ वि।
-वही, श्रु. १, अ. ३, उ. ३ (घ) पासिअ आउरे पाणे अप्पमत्तो परिव्वए।
-वही, श्रु. १, अ. ३, उ.१ २. कुरंग-मातंग-पतंग-भृग-मीना हताः पंचभिरेव पंच।
एक प्रमादी स कथं न हन्यते, यः सेवते पंचभिरेव पंच॥ -गरुडपुराण, अ. ६/३५
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