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ॐ १० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ *
धर्माचरण करने में उनकी रुचि, जिज्ञासा, उत्साह, उमंग आदि नहीं होती। इस दृष्टि से यहाँ अप्रमाद ही धर्म है-कर्मक्षय का कारण है और प्रमाद अधर्म हैकर्मबन्ध का कारण। इसी दृष्टि से भगवान महावीर ने कहा-"धर्माचरण में अपना ही सुपुरुषार्थ अप्रमाद है और अपना ही पापाचरण में कुपुरुषार्थ अथवा धर्माचरण में अपुरुषार्थ (आलस्य, अनुत्साह आदि) प्रमाद है। मनुष्य अपनी ही भूलों (प्रमादों = असावधानियों) से संसार की विचित्र स्थितियों में फँस जाता है।"१ जब तक व्यक्ति स्वयं प्रमाद, आलस्य आदि को हटाकर अप्रमाद की दिशा में गति-प्रगति न करे, तब तक ईश्वर या कोई भी शक्ति मन के लूले-लँगड़े उस व्यक्ति को आत्म-विकास के पथ पर नहीं ला सकती। प्रमाद-निरोध के मुख्य दो उपाय
इसलिए भगवान महावीर ने प्रमाद को हटाने के दो मुख्य उपाय बताए-“एक ओर से-काम, क्रोध, मद, लोभ, राग, द्वेष आदि दिशाओं में जाती हुई मन-वचनकाया की प्रवृत्ति को तत्काल रोको और दूसरी ओर से अपने मन-वचन-काया को धर्माचरण (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपरूप धर्म की = मोक्षमार्ग की साधना) में उत्साहपूर्वक लगा दो।" 'उत्तराध्ययन' के द्रुमपत्रक नामक छठे अध्ययन में भगवान महावीर द्वारा गौतम स्वामी को दी गई अप्रमाद की प्रेरणा मद, मोह, निद्रा, आलस्य, विकथा, राग, द्वेष, कलह, कषाय, विषयासक्ति आदि झंझटों में न फँसकर एकमात्र वीतरागता या कर्ममुक्ति की दिशा में पुरुषार्थ करने की थी और 'स्थानांगसूत्र' में उल्लिखित अप्रमाद की प्रेरणा प्रदान करते हुए प्रमाद को दुःखरूप, कर्मबन्धजनक एवं जन्म-मरणादि के भयोत्पादक एवं मोक्षमार्ग में विघ्नकारक जानकर उससे प्रति क्षण बचने की थी। परन्तु 'स्थानांगसूत्र' में उल्लिखित अप्रमाद-प्रेरणा से कदाचित् कोई मंद साधक सहसा उसका तात्पर्य न समझे, इसलिए उसे प्रमाद और अप्रमाद का साक्षात् नतीजा बताने हेतु वे कहते हैं-“ओ मोक्षमार्ग में अहर्निश यत्न करने वाले सतत प्रज्ञावान् और धीर साधक ! उन्हें देख, जो प्रमत्त हैं, वे धर्म (सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म या आत्म-स्वभावरूप धर्म) से बाहर हैं, इसलिए तू अप्रमत्त होकर सदा (रत्नत्रयरूप या आत्म-स्वभावरूप धर्म में) पराक्रम कर।" आगे उन्होंने कहा-“जो साधक मोक्ष-प्राप्ति (कर्ममुक्ति) की साधना के लिये कमर कसकर उठ खड़ा है, उसे अब क्षणभर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। यह अप्रमाद का मार्ग आर्यों (तीर्थंकरों) ने बताया है।” “सम्यग्ज्ञानी मुनि अनन्य-परम (सर्वोच्च परम सत्य या संयम) के प्रति कदापि प्रमाद (उपेक्षा,
१. सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वह।
-आचारांग, श्रु.१, अ. २, उ. ६
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