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ॐ १२ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों पर राग और अमनोज्ञ विषयों पर द्वेष करता है, अच्छा-बुरा, प्रिय-अप्रिय, अनुकूल-प्रतिकूल की कामना-वासना सँजोता है, पानेछोड़ने को आतुर होता है, वह अशुभ कर्मों का बन्ध करके अपने लिए जन्म-मरण का चक्कर बढ़ा लेता है, दुर्गतिगमन की भूमिका तैयार कर लेता है। आत्मा के स्वाभाविक गुणों का-भावप्राणों का हनन कर डालता है। प्रमाद के द्वारा बहुत बड़ी दुःख-परम्परा की सृष्टि तैयार कर लेता है। 'कामन्दकीय नीति' में कहा गया है?शब्द, स्पर्श, रूप, रस और पाँचवाँ गन्ध, यह प्रत्येक विषय राग-द्वेषादिवश प्रमाद के कारण मलिन होकर विनाश का कारण बनता है। .. प्रमादी को सब ओर से भय, अप्रमादी को कहीं भी भय नहीं ___ इसीलिए भगवान महावीर ने कहा-"प्रमादी व्यक्ति को इस लोक और परलोक में सब ओर से भय है, किन्तु अप्रमादी व्यक्ति को किसी ओर भी भय नहीं है।" 'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार-कषायसहित अवस्था ही प्रमाद है। इसलिए जो कषाय या राग-द्वेष-मोहजनित प्रमादावस्था में जीते हैं, उन्हें राग-द्वेष-कषायों से होने वाले कर्मबन्धों से भावतः भय है और द्रव्यतः प्रमादीजनों को प्रमाद से दुर्घटना, मृत्यु, क्षति, भयंकर दण्ड, दुर्गति आदि का भय है। इसीलिए कहा गया-प्रमत्त को इस लोक में भी भय है, परलोक में भी। इसके विपरीत जो आत्म-हित में जाग्रत है, अप्रमत्त है, उसे न तो संसार का ही भय रहता है और न कर्मों के बन्ध का।२ .. प्रमाद-सेवन के कारण और निवारणोपाय __प्रमाद-स्थान नामक अध्ययन में यही प्रतिपादन किया गया है कि अप्रमत्त साधक को पाँचों इन्द्रियों के मनोज्ञ. विषयों पर न तो राग (आसक्ति, मोह) करना चाहिए और न अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष, घृणा या अरुचि करनी चाहिए तथा कषाय-नोकषायवश मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों को पाने, अल्प-मात्रा में पाने, रखने, रक्षा करने और वियोग होने पर दुर्ध्यान संक्लेश आदि नहीं करना चाहिए, न ही हिंसादि पापों का आचरण करना चाहिए। रूपादि विषयों में अनुरक्त मनुष्य को समाधि और निराकुलता प्राप्त नहीं होती, सुख के बदले दुःख ही प्राप्त होता है। १. (क) 'गरुड़पुराण' से भावांश ग्रहण . (ख) शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पंचमः। एकैकमलमेतेषां विनाश-प्रतिपत्तये॥
-कामन्दकीय नीति २. (क) सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं। (ख) देखें-इस सूत्र की व्याख्या, आचारांग, श्रु. १, अ. ३, उ ४ (आ. प्र. समिति,
ब्यावर), पृ. ११५ (ग) प्रमोदः सकषायत्वम्।
-सर्वार्थसिद्धि ७/१३/३५१/२
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