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* सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण: सम्यक्तप २८७
तापस आदि के तप के पीछे न तो सम्यग्दृष्टि है और न सम्यग्ज्ञान है और न ही उनमें हिंसा-अहिंसा का, हिताहित का तथा पुण्य-पाप व धर्म ( संवर-निर्जरा) तत्त्व का विवेक है। न उनके तप के पीछे परमार्थ, आत्म-शुद्धिरूप पुरुषार्थ या मोक्ष (सर्वकर्ममुक्तिरूप) का लक्ष्य है । इसी दृष्टि से 'समयसार' में कहा गया है - " जो जीव परमार्थ में स्थित नहीं है, वह जो भी तप और व्रत करता है, उसके उन सब तपों और व्रतों को सर्वज्ञ वीतरागदेव बालतप और बालव्रत कहते हैं । ‘सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार- " मिथ्यात्व के कारण मोक्षमार्ग में अनुपयोगी कायक्लेश (केवल कायकष्टबहुल) तथा मायाबहुल तपों और व्रतों का धारण करना बालतप कहा जाता है ।" 'राजवार्तिक' में भी बालतप का लक्षण बताया गया है“यथार्थज्ञान के अभाव में अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों के अग्नि प्रवेश, पंचाग्नितप आदि तप को बालरूप कहा गया है।” 'समयसार' (आत्मख्याति टीका) में कहा है - " अज्ञानपूर्वक किये गए व्रत, तप आदि कर्मबन्ध के कारण हैं, इसलिए उन तपः कर्मों को 'बाल' संज्ञा देकर उनका निषेध किया गया है।" तात्पर्य यह है कि उनके द्वारा किये गए तप के पीछे या तो साम्प्रदायिक अन्धपरम्परा या मान्यता की पकड़ (पूर्वाग्रह) होती है अथवा होती है- प्रशंसा, प्रसिद्धि, वाहवाही या यशकीर्ति आदि की लालसा, आसक्ति या इह-पारलौकिक फलाकांक्षा अथवा नामना-कामना अथवा उनके तप के पीछे किसी स्वार्थ, लोभ, लालसा, भय, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्द्धा, अहंकार, मद, मत्सर, प्रतिशोध, वैर - विरोध, द्वेष, दूसरों को नीचा दिखाने, बदनाम करने या किसी प्रकार के निदान ( कामभोगों आदि की आकांक्षा) इत्यादि की . बलवती प्रेरणा होती है। इसलिए उनका वह तप सम्यक्तप न कहलाकर बालतप कहलाता है। ‘दर्शनपाहुड' में भी कहा है - " सम्यक्त्वरहित मानव अच्छी तरह उग्र तपश्चरण करोड़ों वर्षों तक करें तो भी उन्हें बोधिलाभ प्राप्त नहीं होता । " 'नियमसार' में कहा गया है - " जो श्रमण समतारहित है, उसके द्वारा किये गए कायक्लेशरूप अनेक प्रकार के उपवास, वनवास, अध्ययन, मौन आदि क्या करते हैं ? 'कुछ भी लाभ नहीं करते।"
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(च) अज्ञानकृतयोर्व्रत-तपःकर्मणोः बन्धहेतु त्वाद् बालव्यपदेशेन प्रतिसिद्धत्वे सति।
(छ) समत्तविरहियाणं सुठु वि उग्गं तवं चरंताणं । ण लहंति बोहिलाहं, अविवास-सहस्सकोडीहिं ॥ (ज) किं काहदि वणवासो कायकिलेसो विचित उववासो । १. अज्झय-मोण - पहुदी समदारहियस्स समणस्स ॥
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- समयसार (आ.) १५२
- दर्शनपाहुड ५
- नियमसार १२४
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