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________________ ॐ २८६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ * आगमों में तथा प्राचीन ग्रन्थों में अनेक श्रमण-श्रमणियों के बाह्य उत्कट तप का वर्णन मिलता है। सम्यक्तप और बालतप में बहुत अन्तर : समुचित समाधान बाह्य तपःसाधना की इस पद्धति में उन श्रमण-श्रमणी तपस्वी-तपस्विनियों के द्वारा स्थूलशरीर को सुखा डालने, कृश करने, उसे तपाकर अस्थिपंजरमात्र कर डालने को देखकर स्थूलदृष्टि वाले लोग सहसा कह बैठते हैं कि 'औपपातिकसूत्र' आदि में वर्णित तापसों, परिव्राजकों आदि द्वारा किये जाने वाले विकट तप को जब बालतप (अज्ञानतप) कहा गया है तो धन्ना अनगार आदि विविध श्रमण निर्ग्रन्थों तथा काली, महाकाली आदि साध्वियों द्वारा एवं भगवान महावीर द्वारा साढ़े बारह वर्ष तक किये जाने वाले विविध उग्र बाह्यतप को और भगवान ऋषभदेव द्वारा अभिग्रहपूर्वक एक वर्ष तक किये जाने वाले समौन बाह्यतप को बालतप क्यों नहीं कहा जाए? इसका समाधान यह है कि बालतप करने वाले. १. (क) तएणं से धण्णे अणगारे, जं चेव दिवसं मुंडे भवित्ता जाव पव्वहए तं चेव दिवसं समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे जावजीवाए छटुं छद्रेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। छट्ठस्स वि य पारणगंसि आयंबिलं पडिग्गाहेइ. संसटुंउज्झिय धम्मियं जाव आहार अदीणे अविमणे अंकलुसे अविसादी अपरितंतजोगी' पडिगाहेइ। तएणं से धण्णे अणगारे तेणं ओरालेणं तवोकम्मेणं जहा खंदओ जाव चिट्टइ। धण्णस णं अणगारस्स (जाव) से जहानामए इंगाल-सगडियाइ वा जहा खंदओ तहा जाव हुयासणे इव भासरासि-पलिच्छण्णे तवेण तेएण तवतेयसिरीए उवसोभेमाणे चिट्ठइ।" एवं खलु सेणिया ! इमासिं इंदभूइपामोक्खाणं चोद्दसण्हं समणसाहस्सीणं धण्णे अणगारे महादुक्करकारए चेव महाणिज्जरयराए चेव । -अनुत्तरोपपातिकसूत्र, वर्ग ३, अ. १ (ख) से जे इमे गंगाकूलगा वाणपत्था तावसा भवंति, तं-होत्तिया, पोत्तिया जण्णई मूलाहारा, बीयाहारा पंचग्गि तावेहिं इंगालसोल्लियं कट्ठसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा- अणाराहगा । -उववाईसुतं, सू. १० से जे इमे संखा, जोई, कविला मिउच्चा हंसा परमहंसा बहुउदया कुडिव्वया कण्ह-परिवायगा । -वही, सू. ११ तथा इससे पूर्व का निर्जरा सम्बन्धी लेख। (ग) परमट्ठम्हि दु अहिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई। तं सव्वं बालतवं बालवदं विंति सव्वण्हू।। (घ) बालतपो मिथ्यादर्शनोपेतमनुपाय-कायक्लेशप्रचुरं निकृतिबहुलं व्रतधारणम्। -सर्वार्थसिद्धि.६/२०/३३६/१ (ङ) यथार्थ-प्रतिपत्त्यभावादज्ञानिनो बाला मिथ्यादृष्ट्यादयस्तेषां तपः बालतपः अग्निप्रवेश-कारीप-साधनादि प्रतीतम्। -राजवार्तिक ६/१२/७/५१२/२८ -समयसार १५२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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