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________________ २८८ कर्मविज्ञान : भाग ७ इसके विपरीत श्रमण निर्ग्रन्थों, सर्वविरति - देशविरति साधु - श्रावकवर्ग अथवा नवतत्त्वज्ञ सम्यग्दृष्टि श्रावक के या अविरति सम्यग्दृष्टि के अथवा अर भगवन्तों के तप के पीछे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होते हैं, उन्हें हिंसा-अहिंसा आदि का, हेय-उपादेय का आत्महित-अहित का तथा पुण्य-पाप और धर्म आदि तत्त्वों का विवेक होता है। वे स्वर्ग आदि की या प्रशंसा एवं प्रसिद्धि आदि की कामना से अथवा किसी प्रकार के निदान ( नियाणा), स्वार्थ, लोभ, मोह आदि से या राग-द्वेष, मोह, कषाय से युक्त किसी प्रेरणा से प्रेरित होकर तप नहीं करते । उनका तप कर्मक्षय (निर्जरा) की, आत्म शुद्धि की एवं मोक्षलक्षी दृष्टि से होता है। इसलिए उनका तप सम्यक्तप कहलाता है, बालतप नहीं । धन्ना अनगार ने तो उत्कट तप प्रारम्भ करने से पूर्व सम्यग्दर्शना, ज्ञानयुक्त सर्वविरति चारित्र अंगीकार करके सामायिक आदि एकादश अंगशास्त्रों का अध्ययन कर लिया था । इसलिए उनके या अन्य निर्ग्रन्थ श्रमणों, सम्यग्दृष्टि, तत्त्वज्ञ, देशविरत या अविरत श्रावकों के द्वारा सम्यग्ज्ञानपूर्वक किये गए तप को बालतप कैसे कहा जा सकता है ? बालतप संसारवृद्धि का कारण : क्यों और कैसे ? भगवान पार्श्वनाथ और महावीर के युग में हजारों तापस एवं परिव्राजक विविध प्रकार से बालतप करते थे। उनके तप का जनमानस पर प्रभाव भी था, किन्तु भगवान महावीर और पार्श्वनाथ ने उक्त बालतप की अयथार्थता का प्रतिपादन करते हुए कहा था - " तुम तप से केवल शरीर को कृश करने का प्रयत्न मत करो, (कर्मों के कारणभूत) कषायों को कृष करो। " 'निशीथभाष्य' में भी कहा गया है-“हम तपस्वी साधक के केवल अनशन आदि से कृश (दुर्बल) हुए शरीर के प्रशंसक नहीं हैं। वास्तव में तप के द्वारा इन्द्रिय-विषयासक्ति, कषाय और अहंकार को कृश करना चाहिए ।" आचार्य भद्रबाहु ने 'दशवैकालिक नियुक्ति' में कहा है-“जिस तपस्वी ने कषायों को निगृहीत नहीं किया, उसके तपरूप में किये गए सभी कायकष्ट गजस्नान की तरह व्यर्थ हैं।" तपस्या से यदि (कर्मों के कारणभूत) कषाय जीर्ण नहीं हुए हैं, तो केवल शरीर को जीर्ण करने से क्या लाभ है ? क्योंकि केवल शरीर को कष्ट देने से तो कर्मक्षय नहीं हो सकता। जब कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो सकता, तब तप का लक्ष्य सिद्ध नहीं हो सकता। यही कारण है कि आचार्य भद्रबाहु ने 'आचारांग नियुक्ति' में कहा है-“बालतप से मोक्ष (सर्वकर्मक्षयरूप मुक्ति) नहीं हो सकता है।" क्योंकि तप साधन है, मोक्षरूप साध्य का । ' उत्तराध्ययनसूत्र' में भगवान ने सम्यक्तप को मोक्षमार्ग (कर्ममुक्ति का साधन ) बताया है। जिस तप:साधना से मोक्षरूप साध्य की उपलब्धि न हो, उस साधना को करने से क्या लाभ? भले ही बालतप से स्वर्गीय वैभव प्राप्त हो जाय, पर वह तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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