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________________ सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण: सम्यक्तप २७५ सम्यक्तप से आत्म-शुद्धि की प्रक्रिया प्रश्न होता है - सम्यक्तप आत्मा के साथ लगे हुए; एक जन्म नहीं, करोड़ों जन्मों में आत्मा के द्वारा कृत एवं संचित कर्मों को कैसे क्षय - निर्जरण कर देता है और उससे आत्म-शुद्धि कैसे हो जाती है ? इसकी प्रक्रिया एक रूपक द्वारा 'उत्तराध्ययनसूत्र' में बताई गई है - जैसे किसी महासरोवर में नया जल आने के मार्ग को रोकने से, उसमें पहले पड़े हुए पानी, कीचड़, गंदगी, कचरा आदि को विविध साधनों से उलीचकर बाहर निकालने से एवं सूर्य के प्रचण्ड ताप से उस महासरोवर का जल क्रमशः सूख जाता है, वैसे ही नये पापकर्मों के आनव को रोकने पर तथा पुराने पड़े हुए पापकर्ममलों को व्रत, प्रत्याख्यान, त्याग, संयम, तप आदि से निकाल देने पर एवं विविध ( चारित्र - पालन परीषह - सहन आदि के) ताप से उन्हें (कर्मों को) सुखा देने पर संयमी या तप:साधक के पुराने करोड़ों भवों के संचित पापकर्म भी सम्यक्तप द्वारा क्षीण हो जाते हैं । ' मन, इन्द्रियाँ स्वस्थ और समाधिस्थ रहें, वहीं तक तप करना हितावह है यद्यपि जैनागमों में लम्बे-लम्बे बाह्यतप का विधान है तथा ऐसे कई तपस्वियों के उदाहरण भी मिलते हैं, जिन्होंने एक मास, दो मास से लेकर छह मास तक अनशन (उपवास) किया है अथवा जिन्होंने एक मास या इससे अधिक का या दो मास या इससे अधिक दिनों तक का अनशन करके संलेखना - संथारापूर्वक समाधिमरण प्राप्त किया है । परन्तु जिनके मन में असमाधि उत्पन्न हुई है, तन में कोई भंयकर व्याधि या वमनादि रोग उत्पन्न हो गया हो, आर्त्तध्यान या रौद्रध्यान उत्पन्न हुआ हो, उन्हें बाह्य हो चाहे आभयन्तर तप, आगे बढ़ने का निषेध किया है । 'तपोऽष्टक' में स्पष्ट कहा है- " तप वही करना चाहिए, जिससे मन में दुर्ध्यान (आर्त - रौद्रध्यान ) न हो, मन-वचन-काया के योगों (प्रवृत्तियों की हानि न हो और पिछले पृष्ठ का शेष (ख) तवेण परिसुज्झइ । (ग) तवं संपडिवज्जेत्ता कुज्जा सिद्धाण संथवं । (घ) तवसा अवहट्ठ-लेसस्स दंसणं परिसुज्झइ । (ङ) तपसा प्राप्यते सत्त्वं, सत्त्वात् सम्प्राप्यते मनः । मनसा प्राप्यते त्वात्मा, ह्यात्मापत्त्या निवर्तते ॥ - मैत्रायणी उपनिषद् (आरण्यक ) १/४ १. जहा महातलायस्स सन्निरुद्धे जलागमे । उस्सिंचणाए तवणाए कमेणं सोसणा भवे ॥ ५ ॥ एवं तु संजयस्सावि पावकम्म-निरासवे । भवकोडि-संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ ॥६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - उत्तराध्ययन २८/३५ - वही २६/५२ - दशाश्रुतस्कन्ध ५ / ६ - उत्तराध्ययन ३०/५-६ www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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