SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ २७६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ * न ही इन्द्रियाँ क्षीण हों।"" तपस्या करने वाले मुमुक्षु साधक को अपनी शक्ति आदि को तौलते हुए ही दीर्घ तप में प्रवृत्त होने का विधान है। 'दशवैकालिकसूत्र' में कहा है-“अपना बल, क्षमता, श्रद्धा, आरोग्य (स्वास्थ्य), क्षेत्र (स्थान) और काल (समय या परिस्थिति) देखकर ही स्वयं को किसी साधना में लगाना चाहिए।"२ जहाँ इनका विचार किये बिना ही देखादेखी, प्रतिस्पर्धापूर्वक या दूसरे के चढ़ाने से अविवेकपूर्वक किसी तप को किया जाता है, वहाँ आर्तध्यान का अवसर आता है, वह तप बालतप बन जाता है, हठपूर्वक कर्ममुक्ति के लक्ष्य के बिना जो तप किया जाता है, उससे भयंकर अनिष्ट होने की भी आशंका रहती है। आचार्य जिनसेन ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है-“मुमुक्षु तपःसाधकों को न तो इस शरीर को अत्यन्त कृश, क्षीण और निढाल बना देने का सोचना चाहिए और न ही रसयुक्त स्वादिष्ट एवं पौष्टिक पदार्थों का सेवन करके इस शरीर को अधिकाधिक पुष्ट बनाने का सोचना चाहिए।'' साधक दोषों-विकारों को दूर करके कर्मक्षय करने के लिए अनशन आदि तप करता है। उक्त तपःसाधना में समाधि न रहे, उत्साह, श्रद्धा, मनोबल प्रबल न रहे, आत-रौद्रध्यान होने लगे तो वह तप के बदले ताप बन जाता है। शास्त्र में बताया है कि साधक का आहारग्रहण भी सम्यक्, संयम-साधना के लिए होता है और आहारत्याग भी संयम-यात्रा के लिए होता है। भगवान महावीर ने तो तप ही क्या, प्रत्येक साधना के साथ दो बातों का निर्देश किया है-'जहासुहं' और 'मा पडिबंधं करेह', जिस प्रकार से जैसे भी सुख-समाधि हो वह साधना स्वीकार करो, परन्तु किसी साधना के लिए तुम्हारे मन में उत्साह जग गया है, मनोबल प्रबल है, शरीर में भी समाधि है तो उस साधना को करने में विलम्ब या शिथिलता हर्गिज न करो। “अपनी बाह्य एवं आन्तरिक शक्ति को छिपाओ मत और न ही शक्ति के उपरान्त कोई साधना करो।" एक आचार्य ने भी कहा है-वही अनशन तप श्रेष्ठ है, जिससे मन में अमंगल -तपोऽष्टक (उपाध्याय यशोविजय जी) १. तदेव हि तपः कार्यं दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत्। येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च॥ २. बलं थामं च पेहाए, सद्धामारुग्गमप्पणो। खेत्तं कालं च विण्णाय तहप्पाणं निउंजए॥ ३. न केवलमयं कायः कर्शनीयो मुमुक्षुभिः। नाऽप्युत्कटरसैः पोष्यो मृष्टैरिष्टैश्च वल्लभैः।।' दोष निर्हरणायेष्टा उपवासाधुपक्रमाः। प्राणसंधारणायाऽयम् आहारः सूत्रदर्शितः।। . -दशवैकालिक, अ. ८, गा. ३५ -महापुराण पर्व २०/५/७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy