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________________ ® २७० 8 कर्मविज्ञान :भाग ७ ॐ के द्वारा ईंधन की तरह भस्म हो जाते हैं। तीसरे, ये आभ्यन्तर प्रायश्चित्त आदि तपों की वृद्धि में कारण बनते हैं। बाह्य तपों द्वारा शरीर का कर्षण हो जाने से इन्द्रियों का मर्दन हो जाता है। इन्द्रियदलन से मन अपना पराक्रम किस तरह प्रगट कर सकता है ? कैसा भी योद्धा हो, प्रतियोद्धा द्वारा उसकी बाँह कट जाने पर या घोड़ा मारा जाने पर अवश्य ही निर्बल हो जाएगा। इसी प्रकार कर्म भी बाह्य तप से प्रकारान्तर से निर्बल हो जाते हैं।' यदि स्थूलशरीर द्वारा तप करने पर उसका प्रभाव कर्मशरीर पर न पड़े, वह क्षीण नहीं होता है तो भगवान महावीर की भाषा में वह सम्यक्तप नहीं होता। जो सम्यग्दृष्टिविहीन व्यक्ति अज्ञानपूर्वक केवल स्थूलशरीर को तपाता है, उसे दण्डित करता है, कर्मशरीर सम्यक् रूप से क्षीण नहीं होता है, तो भगवान महावीर ने उसे बालतप-अज्ञानतप कहा है। अज्ञानतप और सम्यक् (सज्ञान) तप में भारी अन्तर अज्ञानपूर्वक तप, सम्यकतप नहीं, सकामनिर्जराकारक तपश्चरण नहीं, वह. केवल कष्ट है, देहदण्ड है, क्योंकि वह अज्ञानतप केवल स्थूलशरीर को तपाता है, उसके पीछे हिंसा-अहिंसा का कोई विवेक नहीं होता, कर्मक्षय करने का लक्ष्य नहीं होता, इससे कर्मशरीर नहीं तपता। जहाँ हिंसा, प्रपंच, आसक्ति, राग-द्वेष आदि दूर नहीं हो रहे हैं, वहाँ भले ही बेचारे स्थूलशरीर को तपा लिया जाए, कर्मशरीर नहीं तपेगा; प्रत्युत हिंसा आदि से कर्मशरीर को ही बल मिलेगा जहाँ कर्मशरीर अधिकाधिक फले-फूले, वहाँ स्थूलशरीर को तपाने-कष्ट देने मात्र से सम्यक्तप नहीं माना जाता। केवल स्थूलशरीर को कष्ट देना धर्म नहीं, न ही तप है। सम्यकतप वह है-जो स्थूलशरीर को तपाने के साथ-साथ कर्मशरीर को भी तपाए। सम्यक्तप का उद्देश्य स्थूलशरीर के माध्यम से कर्मशरीर को तपाना है __ भगवान महावीर ने 'आचारांगसूत्र' में स्पष्ट कहा है-“धुणे कम्मसरीरगं।" अर्थात् कर्मशरीर को धुन डालो, उसे प्रकम्पित कर दो। नमिराजर्षि ने भी इन्द्र को आध्यात्मिक संग्राम का रहस्य समझाते हुए कहा है-“तपरूपी बाण से युक्त धनुष १. (क) 'महावीर की साधना का रहस्य' से भाव ग्रहण, पृ. २६४-२६५ (ख) देहाक्ष-तपनात्-कर्मदहनादान्तरस्य च। तपसो वृद्धिहेतुत्वात् स्यात्तपोऽनशनादिकम्।।५।। (ग) बायैस्तपोभिः कायस्य कर्शनादक्षमर्दने ! छिन्नबाहो भट इव विक्रामति कियन्मनः।।८।। -अनगार धर्मामृत ७/५, ८ २. 'महावीर की साधना का रहस्य' से भाव ग्रहण, पृ. २६६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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