SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण: सम्यक्तप २७१ से कर्मरूपी 'कवच का भेदन कर (जीतने योग्य कर्मों को आन्तरिक युद्ध में जीतकर ) संग्राम से विरत मुनि भव ( संसार के जन्म-मरण) से परिमुक्त हो जाता है।” अतः सम्यक्तप वह है, जो स्थूलशरीर को तपाने के साथ-साथ कर्मशरीर को अवश्य तपाए। उसे क्षीण और प्रकम्पित कर डाले । एक आचार्य ने कर्मों से मुक्त होने के लिए दो ठोस उपाय बताते हुए कहा है- “ एक ओर से तुम (उत्कट बाह्य) तप करो, जिससे तुम सैकड़ों पूर्व-भवों में बद्ध कर्मों को तपा सको, दूसरी ओर से तुम संयम और यम (व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान के माध्यम से संवर) करो; ताकि पापकर्म अर्जित न हो । " " निष्कर्ष यह है कि स्थूलशरीरजनित ताप की आँच सूक्ष्मशरीर को प्रभावित करे तभी वह ताप सम्यक् और कर्मक्षयकारी तप होता है, मोक्ष की ओर ले जाता है । यदि स्थूलशरीर को तपाने से केवल कष्ट ही हुआ है, उसकी आँच कर्मशरीर तक नहीं पहुँची है; यानी उससे कर्मशरीर प्रकम्पित या परितप्त नहीं हुआ है, तो - उसे केवल कायकष्ट मात्र ही समझना चाहिए । कर्मविज्ञान का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि सम्यक्तप का उद्देश्य स्थूलशरीर को केवल कष्ट देना या तपाना मात्र ही नहीं है। न ही स्थूलशरीर या उसके अंगभूत मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, चित्त आदि को सिर्फ कष्ट देना या दुःख का वेदन करना तप है। जहाँ इनके तपाने से कर्मशरीर तक ताप नहीं पहुँचता, वहाँ उसे सम्यक्तप नहीं समझना चाहिए। यह भी ध्यान में रहे कि कर्मशरीर को तपाने में कष्ट होना अवश्यम्भावी नहीं है । कष्ट हो भी सकता है और नहीं भी। सीधे आभ्यन्तर तप द्वारा कर्मशरीर को तपाने में शारीरिक कष्ट नहीं भी हो सकता है । अतः तत्त्व यह हैं कि केवल कष्ट होना तप नहीं है, न ही अज्ञानपूर्वक कष्ट सहने वाला सम्यक् उपस्वी हो सकता है। किन्तु कष्ट का दुःख आ पड़ने पर उसे समभाव से, शान्ति से, प्रसन्न मन से या तत्त्वज्ञानबल से सहा जाए तो उसका ताप सीधे कर्मशरीर तक पहुँच जाएगा और वह बाहर का कष्ट भी आभ्यन्तर तप बन जाएगा। इस प्रकार किसी शारीरिक-मानसिक कष्ट के बिना भी, राग-द्वेष किये बिना, समभाव रखकर, मन्दकषायपूर्वक तथा आभ्यन्तर तप के सम्यक् आचरण द्वारा भी कर्मशरीर को तपाया जा सकता है। १. ( क ) आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. २, उ. ६ (ख) तव - नाराय - जुत्तेण भित्तूण कम्मकंचुयं । मुणी विगय-संगामो भवाओ परिमुच्चए । (ग) कुणसु तवं, जेण तुमं तावेसि कम्मं भव-सय-निबद्धं । होसु य संजम-जमिओ, जेण ण अज्जेसि तं पावं ।। २. 'महावीर की साधना का रहस्य' से भाव ग्रहण, पृ. २६४-२६६ Jain Education International - उत्तराध्ययन, अ. ९, गा. २२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy