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* सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप ॐ २६९ *
अधिक शक्ति प्रदान करने वाला कार्मणशरीर है। इसी से स्थूलशरीर को और तैजस्शरीर को यथायोग्य शक्ति मिलती है।
दुःख-दर्द उत्पन्न होता है-कर्मशरीर में, प्रकट होता है-स्थूलशरीर में कर्मशरीर ही जीवन में होने वाली अच्छी-बुरी घटनाओं का मूलाधार है। स्थूलदृष्टि वाले लोग सहसा कह देते हैं, शरीर में रोग उत्पन्न हुआ या पेट में पीड़ा हुई, छाती में दर्द हुआ, आँखें दुखने लगी आदि। परन्तु कर्मविज्ञानमर्मज्ञ सम्यग्दृष्टिपूर्वक अन्तर्दृष्टि से विचार कर कहते हैं-रोग, पीड़ा, दर्द या दुःख शरीर, पेट, छाती और नेत्र में उत्पन्न कदापि नहीं होता, वह उत्पन्न होता है-कार्मणशरीर में, किन्तु बाद में दिखाई देता है, प्रकट होता है-स्थूलशरीर में। जैसे बल्ब में बिजली का प्रकाश पैदा नहीं होता, विद्युत् पैदा होती है-दूसरी जगह, यानी पावरहाउस में, किन्तु बल्ब आदि में प्रकट होती है। इसी प्रकार रोग आदि बहुत पहले से जीव के पूर्वकृतकर्मवश उत्पन्न होते हैं-कार्मण (कर्म) शरीर में, किन्तु वह केवल प्रगट होता है-स्थूलशरीर में या उसके विभिन्न अंगोपांगों या इन्द्रियों में।
स्थूलशरीर के माध्यम से कर्मशरीर को तपाया जाता है निष्कर्ष यह है कि सारे अच्छे-बुरे घटनाचक्रों का मूल है-कर्मशरीर। राग-द्वेष, मोह या कषायों की खुराक जब कर्मशरीर को मिलती है, तब आत्मा के साथ कर्म का बन्ध होता है, उसका कटु-फल तन, मन, इन्द्रिय, बुद्धि आदि सबको मिलता है, वह स्थूलशरीर के माध्यम से प्रगट होता है तथा मन, बुद्धि आदि के माध्यम से भी प्रगट होता है। इस अनिष्ट और अवांछित कर्मफल की स्थिति को रोकने के लिए ही तपश्चरण का प्रयोग है। ___ आप यह मत सोचिये कि स्थूलशरीर को विविध बाह्य तपश्चरणों से तपाने का परिणाम केवल स्थूलशरीर पर ही होगा। सच बात तो यह है कि स्थूलशरीर द्वारा तपस्या के माध्यम से जब कर्मक्षय करने की सक्रियता पैदा की जाती है तो उसका सर्वप्रथम प्रभाव होता है-कर्मशरीर पर, फिर होता है तैजसशरीर पर और अन्त में प्रभाव पड़ता है-स्थूलशरीर पर। यदि विवेकपूर्वक स्थूलशरीर और इन्द्रियों तथा मन को राग-द्वेषादि विकल्प से अशुभ में जाने से रोकते हैं, तो इस प्रकार के तप का प्रभाव कर्मशरीर पर पड़ता है। कर्मशरीर को खुराक मिलनी बंद हो जाती है, तो वह या तो वहीं स्थगित हो जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता या वह फल भुगवाकर नष्ट हो जाता है। ‘अनगार धर्मामृत' में भी कहा गया है-अनशनादि • बाह्य तप इसलिए है कि इन तपश्चरणों के होने पर शरीर और इन्द्रियाँ उद्विक्त नहीं हो सकतीं, वे कृश हो जाती हैं। दूसरे, इनके द्वारा सम्पूर्ण अशुभ कर्म अग्नि
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