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________________ • २६८ कर्मविज्ञान : भाग ७ सहिष्णुता से तथा इन्द्रिय-विषयासक्ति निरोध से, यानी बाह्यतप के कार्यकलापों से रोग, शोक, चिन्ता, भय, उद्वेग आदि नष्ट हो जाते हैं। शारीरिक शुद्धि, रक्तवृद्धि, मानसिक शुद्ध चिन्तन, मानसिक विकारों का पलायन, मनः शुद्धि आदि सब लाभ विवेकपूर्वक तप करने से मिलते हैं । अतः बाह्यतप को कष्टसाध्य, असमाधिकारक अथवा शक्तिक्षयकारक नहीं समझना चाहिए । ' स्थूलशरीर को तपाने से तेजस्- कार्मण शरीर पर अचूक प्रभाव जब भी तपस्या की बात चलती है, तब जैन समाज में ही नहीं, अन्य समाजों, धर्म-सम्प्रदायों में भी स्थूलशरीर को भूखे-प्यासे रखकर या विविध प्रकार से कष्ट देकर तपाने की बात सोची जाती है, परन्तु यह चिन्तन एकांगी है। यह ध्यान रखना चाहिए कि आत्मा और स्थूलशरीर के बीच में दो शरीर और हैं, जिन्हें जैनदर्शन ही नहीं, अन्य दर्शनों ने भी माने हैं। जैनदर्शन स्थूलशरीर को औदारिक अर्थात् स्थूल और सघन पुद्गलों से बना हुआ मानता है। इसे सभी धर्मों, दर्शनों, मतों और मान्यताओं वाले मानते-जानते हैं, क्योंकि यह शरीर दृश्य है। इसका घटना बढ़ना; छोटा-बड़ा होना आबाल-वृद्ध - वनिता आदि सबको दिखाई देता है । किन्तु इसके भीतर दो शरीर और हैं जो सूक्ष्म और सूक्ष्मतर हैं; जो इन चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देते। जो इस शरीर की चीरफाड़ करने पर भी नहीं दीखते । जो अन्तर्दृष्टि से देख सकते हैं, उन महान् पुरुषों ने पूर्वापर कार्यकारण-सम्बन्धों से देखा तो कहाइस स्थूलशरीर के भीतर भी दो शरीर और हैं - तैजस्शरीर और कार्मणशरीर । वैदिक ऋषियों ने इन्हें सूक्ष्मशरीर और कार्मणशरीर कहा । पाश्चात्य लोगों ने तथा थियोसोफिस्टों ने इन्हें क्रमशः इथेरिक बॉडी (Etheric Body) और एस्ट्रल बॉडी (Astral Body) माना है। जीवों के स्थूलशरीर में जो भी हलचल, स्पन्दन, क्रियाएँ, प्राणों का व नस-नाड़ियों का संचार, ऊर्जा-शक्ति होती है, वह विद्युत्, प्राण या ऊर्जा का शरीर तैजस्शरीर है। स्थूलशरीर में जो भी क्रिया, गति-प्रगति, शक्ति, बौद्धिक क्षमता, हलन-चलन, भोजन - पाचन आदि तैजस्शरीर के कारण है। पक्षाघात हो जाने पर शरीर निष्क्रिय हो जाता है, तब तैजस्शरीर से सम्बन्ध कट हो जाता है। स्थूलशरीर का वह भाग जड़ या शून्य हो जाता है। तैजस्शरीर से भी सूक्ष्म एक शरीर है-कार्मणशरीर-कर्ममयशरीर या वासनाशरीर । तैजस्शरीर को कम या 9. मन- इन्द्रिय-योगानामहानिश्च उदिता बुधैः । यतोऽत्र कथंन्वस्य युक्ता स्याद् दुःखरूपता ॥ - अभिधान राजेन्द्रकोष, भा. ४, पृ. २२0१ (ख) 'जैन- आचार: सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ५३५ २. 'महावीर की साधना का रहस्य' (आचार्य महाप्रज्ञ ) से भाव ग्रहण, पृ. २५८-२५९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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