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________________ ॐ सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप ® २६५ ® डालती है, वैसे ही तपरूप अग्नि कर्मरूप तण को जला देती है। तप से समस्त उत्तम पदार्थों की प्राप्ति होती है।'' 'राजवार्तिक' के अनुसार-“तप सर्वार्थ-साधक है। इससे ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं। तपस्वियों की चरणरज से पवित्र स्थान ही तीर्थ बने हैं। जिसके जीवन में तप नहीं, वह तिनके से भी लघु है। उसको समस्त गुण छोड़ देते हैं। वह संसार से मुक्त नहीं हो पाता।" 'आत्मानुशासन' में कहा गया है-“सम्यक्तप इस लोक में आत्मा के साथ लगे रहने वाले क्रोधादि विभाव-रिपुओं पर विजय प्राप्त कर लेता है और जिन्हें वह प्राणों से भी बढ़कर चाहता है, वे क्षमा, शान्ति, नम्रता, ऋजुता आदि सद्गुण प्राप्त हो जाते हैं। साथ ही पुरुषार्थसिद्धि उस तपोधनी की अनुगामिनी हो जाती है। अतएव वह परलोक में भी (उत्तम गति-योनि प्राप्त कराने में) हितसाधक है। ऐसा विचार करके उभयलोक के संताप का हरण करने वाले तप में विवेकीजन क्यों नहीं रमण करते? 'पद्मनन्दि पंचविंशतिका' के अनुसार-"जो क्रोध आदि कषायों और पंचेन्द्रिय विषयोंरूपी उद्भट अनेक चोरों का समूह बड़ी कठिनता से जीता जा सकता है, वह तपरूपी सुभट के द्वारा बलपूर्वक प्रताड़ित होने से विघटित हो जाता है, भाग जाता है। अतएव उस सम्यक्तप से तथा धर्मरूपी लक्ष्मी से युक्त होकर साधक मुक्तिनगरी के मार्ग पर सब प्रकार की विघ्न-बाधाओं से रहित होकर सुखपूर्वक गमन कर विचरण करता है।'' 'आराधनासार' में कहा गया है-"निकाचितरूप से बाँधे हुए कर्म भी तब तक भस्म नहीं हो पाते, जब तक प्रवचन (निर्ग्रन्थ धर्म) में कही हुई तपरूपी अग्नि प्रज्वलित (दीप्त) नहीं होती।" तप दुःखात्मक है, मोक्षांग नहीं : आक्षेप का समाधान ___ तप के सम्बन्ध में कतिपय मतवादियों का आक्षेप है कि जितने भी तप हैं, वे सब शारीरिक-मानसिक दुःखात्मक हैं। अर्थात् अनशनादि तप से शरीर और मन को असाता और पीड़ा होती है। अतः तप दुःखात्मक-दुःखोत्पादक होने से मोक्ष का अंग न होकर असातावेदनीय आदि कर्मों के उदयरूप (विपाकरूप) हैं; क्योंकि अनशनादि तप से क्षुधा, पिपासा आदि परीषह (दुःख) उत्पन्न होते हैं, जोकि -आपके (जैनों के) आगमानुसार वेदनीयादि कर्मों के उदय से प्राप्त होते हैं। जैसे बैल आदि पशुओं को भूख, प्यास आदि लगने, विवश होकर बोझ ढोने आदि दुःख उनके द्वारा पूर्वबद्ध वेदनीय आदि कर्म उदय से प्राप्त होते हैं, वैसे ही तप से क्षुधादि दुःख भी वेदनीयादि कर्मों के उदयरूप मानने चाहिए। अतः तपोजन्य दुःख कर्मोदयरूप है, वह कर्मक्षयकारक मोक्ष का अंग नहीं है। जैन-कर्मसिद्धान्त का प्रत्याक्षेप है-आपके मतानुसार यदि तप दुःखरूप माना जाए तो जो-जो दुःखी होते हैं या जिन जीवों को अत्यधिक दुःख प्राप्त होता है, उन्हें विशिष्ट तपस्वी माना जाना चाहिए। इस दृष्टि से तो नरक के नारक तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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