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________________ * २६६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ® तिर्यंच पशु-पक्षी आदि या अधिक दुःखी मानवों को विशिष्ट तपस्वी-महातपस्वी मानना चाहिए और जिन योगियों एवं आध्यात्मिक पुरुषों के जीवन में शम, सन्तोष, वैराग्य, शान्ति आदि सुख प्रचुर मात्रा में हैं, उन्हें दुःखात्मक तप के अभाव के कारण अतपस्वी कहना चाहिए। परन्तु यह सब कपोलकल्पना युक्ति, आगमोक्ति और अनुभूति के विरुद्ध है। सम्यक्तप असातावेदनीय-बंधकारक व दुःखोत्पादक नहीं _ 'राजवार्तिक' के अनुसार-क्रोधादि के आवेश के कारण द्वेषपूर्वक होने वाले स्व, पर और उभय के दुःखादि पापासव के हेतु होते हैं, न कि स्वेच्छा से आत्म-शुद्ध्यर्थ किये जाने वाले तप आदि। जैसे अनिष्ट द्रव्य के सम्पर्क से द्वेषपूर्वक दुःख उत्पन्न होता है, उसी तरह बाह्य-आभ्यन्तर तप की प्रवृत्ति में धर्मध्यान परिणत साधक के अनशन आदि करने-कराने में द्वेष की संभावना नहीं है, अतः असाता का बन्ध नहीं होता। अनादिकालीन सांसारिक जन्म-मरण की वेदना को नष्ट करने की इच्छा से तप आदि उपायों में प्रवृत्ति करने वाले साधक के कार्यों में स्व-पर-उभय में दुःखहेतुता दीखने पर भी क्रोधादि का अभाव होने से (असातावेदनीयरूप) पापकर्म का बन्ध नहीं होता। ‘पद्मनन्दि पंचविंशतिका' के अनुसार-लोक में मिथ्यात्व आदि के निमित्त से जो तीव्र दुःख प्राप्त होने वाला है, उसकी अपेक्षा तप से उत्पन्न होने वाला दुःख इतना अल्प होता है, समुद्र के सम्पूर्ण जल की अपेक्षा, उसकी एक बूंद के बराबर। उस तप से सब कुछ प्राणबल प्राप्त हो जाता है। इसलिए हे जीव ! कष्ट से प्राप्त होने वाली मनुष्य-पर्याय प्राप्त होने पर भी यदि तुम तप से स्खलित होते (बिदकते) हो तो फिर तुम्हारी कितनी हानि होगी? (सारी शक्ति पर-भावों और पुद्गलों की आसक्ति और गुलामी में नष्ट हो जायेगी।)" १. (क) तं णत्थि जं ण लब्भइ तवसा, सम्मं कएण पुरिसस्स। अग्गीव तणं जलिओ कम्मतणं डहदि य तवग्गी॥ -भगवती आराधना १४७२ (ख) तपः सर्वार्थसाधनम्। तत एव ऋद्धयः संजायते। तपस्विभिरध्युषितानि एव क्षेत्राणि तीर्थतामुपगतानि। तद्यस्य न विद्यते, स तृणवल्लघुर्लक्ष्यते। मुंचति तं सर्वे गुणाः। नाऽसौ मुंचति संसारम्। -रा. वा. ९/६/२७ (ग) । इहैव सहजान् रिपून विजयते प्रकोपकादिकान्। गुणाः परिणमन्ति यानसुभिरप्ययं वांछति॥ पुरश्च पुरुषार्थसिद्धिरचिरात् स्वयं यायिनी। नरो न रमते कथं तपसि तापसंहारिणि ।। -आत्मानुशासन ११४ (घ) कषाय-विषयोद्भट-प्राचुरतस्करौघो। हठात् तपःसुभटताडितो विघटते यतो दुर्जयः।। अतोहि निरुपद्रवश्चरति तेन धर्मश्रिया। यतिः समुपलक्षितः पथि विमुक्तिपुर्याः सुखम्॥ -पद्मनन्दि पंचविंशतिका १/९९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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