________________
ॐ २६४ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ 8
सुख-शान्ति की गारंटी विद्यमान थी। उस युग का लोकमानस सहज संयम, सरलता . और सादगी से ओतप्रोत था। छलकपट, मायाचार, वंचना, धनार्जन की लालसा आदि से प्रायः दूर था।
धीरे-धीरे समय की अलक्षित गति के साथ मनुष्य का मानस बदला। वह जीवनानन्द के बदले स्वच्छन्दता, सुख-सुविधा और विलासिता में सुख मानने लगा। प्रायः आरामतलबी, सुख-सुविधा और विषयसुख-लालसा उसके जीवन में व्याप्त हो गई। विलासिता और स्वच्छन्द विषयोपभोग-लालसा की पूर्ति के लिए उसका लक्ष्य येन-केन-प्रकोरण धन कमाना और उससे विषयोपयोग की विविध साधन-सामग्री जुटाना हो गया। जीवन में आने वाले तूफानों और झंझावातों के बीच अविचलित-अकम्प खड़े रहने की क्षमता को वह खो बैठा। बिना घबराए
और बिना काँपे वह जीवन-नैया को तूफानों में खेने में असमर्थ हो गया। वह इन्द्रियों का गुलाम बनकर इन्द्रिय-विषयसुख में ही शान्ति को खोजता रहा। पौरुष का धनी पुरुष तपःपूत जीवन से कतराकर अपनी रक्षा के लिए परमुखापेक्षी बन गया। अपनी आध्यात्मिक-शक्तियों से वह अनभिज्ञ और वंचित हो गया। आरामतलबी और सुख-सुविधा से भरे वातावरण में रहने वाले लोग तन-मन-बुद्धि एवं शक्ति से अक्षम एवं अविकसित स्थिति में पड़े रहे। विविध क्षमताओं का उनमें विकास के बजाय ह्रास होता गया। उस्तरे पर धार रखते रहने से ही उसमें पैनापन
और चमक कायम रहती है, किन्तु यदि उसे ऐसे ही पड़ा रहने दिया जाए तो धीरे-धीरे उस पर जंग चढ़ती जाती है और एक दिन वह गल-सड़कर समाप्त हो जाता है। उसी प्रकार तपःपूत जीवन से कतराने वाले सुख-सुविधाभिलाषी लोग अपना पुरुषार्थ खोते जाते हैं। अकर्मण्यता, जीवन से निराशा और असहिष्णुता के कारण उनके जीवन से तेजस्विता, तीक्ष्णता और क्षमताएँ विदा हो जाती हैं। फलतः उनके तन, मन, बुद्धि, हृदय आदि सभी अन्तःकरण और प्राणबल दुर्बल होते जाते हैं। बात-बात में चिन्ता, उद्विग्नता, आधि, व्याधि, उपाधि में वृद्धि तथा जरा-से कष्ट में घबराहट होती जाती है। समस्याओं पर विजय पाने का एकमात्र उपाय : सम्यक्तप
इन सब दुश्चिन्ताओं, दुर्बलताओं एवं उद्विग्नताओं से उबरने, सच्ची सुख-शान्ति पाने और शारीरिक, मानसिक और आत्मिक-समाधि एवं क्षमताएँ बढ़ाने का एकमात्र उपाय है-तपःसाधना। अर्थात् स्वेच्छा से इच्छानिरोधपूर्वक ज्ञानबल से दुःखों, कष्टों, परीषहों, उपसर्गों आदि को सहना, उन पर विजय प्राप्त करना। 'भगवती आराधना' में कहा गया है-“संसार में कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है, जो निर्दोष तप से प्राप्त न होता हो। जैसे-प्रज्वलित अग्नि तृण (घास) को जला
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org