SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • निर्जरा के विविध स्रोत २६१ समस्त कर्म क्षय करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गये। यह है - स्वेच्छा से सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक परीषह - उपसर्ग को समभावपूर्वक सहन करने से हुई प्रशस्त महानिर्जरा का ज्वलन्त उदाहरण ।' कष्ट और आत्म-शुद्धि की अपेक्षा से चौभंगी भगवान महावीर ने अनेकान्तदृष्टि से कहा था - " - " मैं शरीर को अधिक कष्ट देने को धर्म या अधर्म नहीं कहता, मैं प्रशस्त ( सकाम ) निर्जरा ( आत्म-शुद्धि) को धर्म कहता - बताता हूँ। नरक के नारक कष्ट अधिक सहते हैं, किन्तु आत्म-शुद्धि अल्पतर होती है । उच्च - भूमिकारूढ़ समभावी साधक अल्प कष्ट सहकर महान् आत्म-शुद्धि कर लेते हैं । सम्यक् तपश्चरणरत साधक महान् कष्ट सहते हैं, शुद्धि भी महान् कर लेते हैं। जबकि सर्वोच्च देव अल्प कष्ट सहते हैं, उनकी शुद्धि भी अल्प होती है ।" निर्जरा के इन सभी पहलुओं पर विचार करके सकामनिर्जरा के अवसरों को न चूककर आत्मा को उज्ज्वल - समुज्ज्वल बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिए। 'आवश्यक कथा' से संक्षिप्त (ख) 'मोक्षमाला' (श्रीमद् राजचन्द्र ) से भाव ग्रहण, पृ. ५० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy