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________________ * २६० * कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ उदायी मुनिवर को दिलवा दिया। मुनिराज सब मर्म समझ गये। उन्होंने समभाव नहीं त्यागा। सोचा-“केशी राजा ने मुझे कर्मनिर्जरा करने का सुन्दर अवसर देकर मुझ पर महान् उपकार किया है।" यों समभावपूर्वक उस भयंकर कष्ट और उपसर्ग को सहन किया। फिर अठारह पापस्थान तथा चारों ही आहार का त्याग करके सबसे क्षमायाचना करके आजीवन संथारा ग्रहण कर लिया। उसके प्रभाव से प्रचुर कर्मनिर्जरा हुई, चार घातिकर्मों का क्षय हुआ। केवलज्ञान-दर्शन प्राप्त कर लिया और थोड़े ही समय में समस्त कर्मों का क्षय करके वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गये। यह थी समभावपूर्वक परीषह-उपसर्ग को सहने से सर्वकर्मनिर्जरा।' महापापी दृढ़प्रहारी निर्जरापेक्षी सर्वकर्ममुक्त हो गया। ___ हत्यारे और लुटेरे दृढ़प्रहारी का कठोर दिल गाय और बछड़े को मरणान्तक कष्ट से छटपटाते देखकर द्रवित हो उठा। वह मन ही मन तीव्र पश्चात्ताप करने लगा-“हाय ! मैंने कितने घोर पापकर्म किये हैं ? इनसे कैसे छुटकारा होगा ?" यों वैराग्यरस में डूबा हुआ दृढ़प्रहारी साधु बनकर वन की ओर चल पड़ा। किन्तु फिर मन में विचार आया-वन में मुझे कर्मनिर्जरा का अवसर कहाँ मिलेगा? जिनका मैंने सर्वस्व लूटा है या जिनके सम्बन्धियों का वियोग किया है, वे सब तो नगर में हैं। अगर मैं नगर के प्रत्येक द्वार पर क्रमशः ध्यानस्थ एवं शान्त खड़ा रहूँ तो नगरजन मुझे देखकर अपना प्रतिशोध लेंगे। मुझे तरह-तरह से मनचाहा कष्ट देंगे। उन कष्टों को समभावपूर्वक सहन करने से मुझे अपने पापकर्मों की निर्जरा करने का अवसर मिलेगा।" यों विचार कर दृढ़प्रहारी मुनि नगर के पूर्व द्वार पर ध्यानस्थ खड़े हो गये। लोग पहले तो कुपित होकर उसे विविध प्रकार से ताड़ना, तर्जना, भर्त्सना करने और यातना देने लगे। डेढ़ महीने तक तिरस्कृत किया। जब हार-थककर चले गये तो मुनि वहाँ से पश्चिम के द्वार पर ध्यानस्थ खड़े हो गये। वहाँ भी उनकी ऐसी हालत हुई। जब थककर चले गये तो मुनि क्रमशः उत्तर और दक्षिण दिशा के द्वार पर भी ध्यानस्थ खड़े हो गये। यों चारों दिशाओं के द्वार पर डेढ़-डेढ़ महीने तक क्षमाधारी होकर ध्यानस्थ खड़े रहकर परीषह और उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन किया तथा इस अनुप्रेक्षा के साथ वे शान्तभाव से स्थिर रहे कि मुझ पर चढ़ा हुआ ऋण (कर्ज) उतारने का यह शुभ अवसर है। इस प्रकार छह महीने में दृढ़प्रहारी मुनि ने समभाव से कष्ट सहकर सर्वकर्मों की निर्जरा की, वह भी प्रशस्त सकामनिर्जरा की। नागरिकों का रोष शान्त हुआ। महामुनि से उन्होंने क्षमा माँगी। दृढ़प्रहारी महामुनि को केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हुआ। अन्त में वे १. देखें-भगवतीसूत्र, श. १३, उ. ६ में राजर्षि उदायी मुनि का जीवनवृत्त, उत्तराध्ययन की __ भावविजयगणि की टीका में तथा आवश्यक चूर्णि उत्तरार्द्ध में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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