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________________ २५२ कर्मविज्ञान : भाग ७ किया जाता है। अतः इस चार प्रकार की समाधि से श्रमणोपासक विभिन्न तपश्चरणों के माध्यम से श्रमणोपासक ( सकाम ) निर्जरा के फल को प्राप्त करता है । निष्कर्ष यह है कि श्रमण-माहन दान लेकर तथा श्रावक दान देकर दोनों समाधि चतुष्टय प्राप्त करके एकान्त निर्जरा का तथा द्वितीय सूत्र पाठानुसार बहुत निर्जरा करके कर्मों से हल्के होने का फल प्राप्त कर लेते हैं। पाँचवीं बात - उपर्युक्त सूत्र के द्वितीय पाठ में बताया गया है कि तथारूप श्रमण-माहन को आहार आदि से प्रतिलाभित करता (देता ) श्रमणोपासक कर्मों की दीर्घ स्थिति का त्याग कर ( कम कर ) डाला है। दीर्घकाल तक भोगने के जो कर्मथे, उनका क्षय करके (निर्जरा करके) हस्व थोड़े काल की स्थिति कर लेता है तथा दुष्कर्मों के पूर्वकृत संचय को दूर कर देता है वह भी निर्जरा ही है तथा ग्रन्थिभेद करता है, यावत् अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण गुणस्थान प्राप्त करते हुए क्षायिक सम्यक्त्वरूप = बोधिबीजरूप सम्यग्दर्शन प्राप्त करके क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर अन्त में शास्त्रपाठानुसार वह कार्य की सर्वथा निर्जरा करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है । अतः तथारूप श्रमण को दान देने से ये सब फल प्राप्त होते हैं और वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपरूप फल की प्राप्ति होने से देशतः तथा सर्वतः निर्जरा होनी सम्भव है, इस दृष्टि से भगवान ने एकान्त निर्जरा या बहुतर निर्जरा प्रतिपादित की है । ' पापकर्म से दुःख और उसकी निर्जरा करने से सुख पहले कहा जा चुका है कि पापकर्म के बन्ध से दुःख और निर्जरा से सुख प्राप्त होता है और निर्जरा पूर्वबद्ध कर्मों को भोग लेने से होती है । सकाम और अकाम दोनों प्रकार की निर्जरा में सकामनिर्जरा ही सर्वकर्ममुक्ति के लिए उपादेय है । सकामनिर्जरा में कुछ विशेष नहीं करना पड़ता, केवल दृष्टि बदलने की आवश्यकता है । परन्तु इतना होते हुए भी मनुष्य बन्ध को तोड़कर सकामनिर्जरा नहीं कर पाता। कर्मनिर्जरा करने में सफल कौन, असफल कौन ? रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्यों को इस सम्बन्ध में एक रूपक द्वारा समझाया-संसार में चार प्रकार की मछलियाँ हैं । कुछ मछलियाँ ऐसी हैं, जो बन्धन को बन्धन ही नहीं समझतीं, वे उसी बन्धन में पड़ी रहना चाहती हैं। दूसरे प्रकार १. प्रश्नोत्तर मोहनमाला (गुजराती), भा. ३, पृ. १५२-१५४ २. नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं पावे कम्मे जे य कडे, जे य कज्जइ, जे य कज्जिस्सइ सव्वे से दुक्खे, जे निज्जिने से । - भगवतीसूत्र, श. ७, उ. ९, सू. २९४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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