________________
ॐ निर्जरा के विविध स्रोत ॐ २५३ ॐ
की मछलियाँ बन्धन को बन्धन समझती हई थीं, अपने सदश दुसरी मछलियों की तरह बन्धन से छूटने का थोड़ा-सा भी प्रयत्न नहीं करती हैं। अतः बन्धन से मुक्त नहीं हो पातीं। तीसरे प्रकार की मछलियाँ बन्धन से छूटने का प्रयास करती हैं, परन्तु वे एक बन्धन को तोड़ती हैं, किन्तु दूसरे बन्धन में फँस जाती हैं। इस प्रकार बन्धन से पूर्णतया मुक्त नहीं हो पातीं। चौथे प्रकार की मछलियाँ बन्धन को भलीभाँति जानती हैं, उन्हें तोड़ने का पूर्ण प्रयत्न करती हैं और जब भी मौका मिलता है, बन्धन को तोड़कर मुक्त हो जाती हैं। इन चार मछलियों की तरह कर्मबन्ध को तोड़ने में सफल-असफल व्यक्ति भी चार प्रकार के हैं। कई अभव्य या असंज्ञी जीव ऐसे हैं, जो बन्धन को बन्धन ही नहीं समझते और बन्धन में पड़े रहना ही चाहते हैं। दूसरे प्रकार के व्यक्ति बन्धन को बन्धन समझकर भी तोड़ने का प्रयास नहीं करते। वे दुःख भोगते हैं, कष्ट सहते हैं, थोड़ी-सी निर्जरा करते हैं, किन्तु अधिकतर नये कर्म बाँध लेते हैं। तीसरे प्रकार के व्यक्ति बन्धन से छूटने के लिए इच्छापूर्वक प्रयत्न करते हैं, वे सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न हैं, किन्तु सराग संयम होने के कारण वे निर्जरा के साथ शुभ रागवश पुण्यबन्ध भी करते जाते हैं। चौथे प्रकार के साधक ऐसे हैं, जो बन्धन को भलीभाँति समझकर उसके उदय में आने पर कष्ट को समभाव से, शान्ति से, प्रतिक्रिया व्यक्त न करते हुए भोगकर पूर्ण प्रशस्त सकामनिर्जरा करते हुए उक्त बन्धन को तोड़ डालते हैं।
सकामनिर्जरा : कर्मफल भोगने की कला सकामनिर्जरा कर्मफल भोगने की प्रशस्त कला है। पूर्वबद्ध कर्म शुभ हो या अशुभ, दोनों के ही उदय में आने पर सुख या दुःख को समभाव रखकर भोगने से सकामनिर्जरा का परम लाभ मिलता है। प्रायः हम देखते हैं कि मनुष्य धर्मस्थान, मन्दिर, प्रार्थनागृह आदि में जाता है, वह कुछ परम्परागत क्रियाएँ करता है, धर्मग्रन्थ श्रवण करता है, उस समय पूर्वबद्ध कर्मों के उदय के समय दुःख को समभाव से भोग लेने की प्रेरणा मिलती है। परन्तु घर आते ही पूर्व संस्कारवश वह भावना काफूर हो जाती है। वह स्वाध्याय भी करता है, अच्छी पुस्तकें भी पढ़ता है, कभी एक दिन या कुछ घण्टों के लिए उग्र क्रोधादि कषाय न करने के लिए नियमबद्ध भी होता है, परन्तु उक्त पीरियड समाप्त होते ही वह निर्जरा के अवसर आने पर भी समभाव से उक्त सुखरूप या दुःखरूप फल को न भोगकर उनकषायवश, अज्ञानतापूर्वक भोगता है, अतः नये कर्म बाँध लेता है। कुछ माई के लाल तो नियमबद्ध होकर कर्मफल भोग के समय समभाव रखने का अभ्यास करना ही बेकार समझते हैं। परन्तु श्रमणोपासक गृहस्थवर्ग तथा निर्ग्रन्थ श्रमणवर्ग सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न सम्यग्ज्ञानयुक्त होते हुए भी पूर्ण संस्कारवश उग्र कषायों के
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org