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• निर्जरा के विविध स्रोत २५१
करता हुआ सिद्ध, बुद्ध, ( सर्वकर्म) मुक्त हो जाता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त कर देता है ।" "
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श्रमण-माहन को दान देने से कौन-सी समाधि प्राप्त होती है ?
इसके अतिरिक्त पूर्वोक्त शास्त्र पाठ में यह बताया गया है कि " श्रमण-माहन को समाधि उपजाने के कारण उक्त श्रमणोपासक वैसी ही समाधि प्राप्त करता है । " इसका आशय यह है कि ‘दशवैकालिकसूत्र' में चार प्रकार की समाधि बताई है - (१) विनयसमाधि, (२) श्रुतसमाधि, (३) तपः समाधि, और ( ४ ) आचारसमाधि । इन चारों प्रकार की समाधि श्रमणोपासक द्वारा आहारादि देने से श्रमण पाता है, वैसे ही आहारादि का दाता श्रमणोपासक भी चारों प्रकार की समाधि प्राप्त करता है। प्रथम विनयसमाधि है, जो प्रथम विकल्प के अनुसार श्रावक श्रमण को आहारदान देते समय विनय नामक आभ्यन्तर तप प्राप्त कर लेता है । दूसरी श्रुतसमाधि है । उसे भी श्रमणोपासक पंचविध स्वाध्याय के माध्यम से प्राप्त कर लेता है। श्रमण गुरुदेव की सेवा-सुश्रूषा, विनय आदि करने से श्रमणोपासक को उनसे सूत्र की वाचना लेना, प्रश्नादि जिज्ञासु बुद्धि से पूछना, बार-बार शास्त्र की या सिद्धान्त, ज्ञान की पर्यटना आवृत्ति करना, सूत्र के अर्थ पर या तथ्य या सिद्धान्त पर अनुप्रेक्षण - चिन्तन-मनन करना और गुरुगम से मिले हुए ज्ञान पर से धर्मकथा या धर्मचर्चा करना। यों पाँच प्रकार का स्वाध्याय भी आभ्यन्तर तप है। स्वाध्याय पंचक से वह श्रमणोपासक भी श्रुतसमाधि पाता है। श्रमणोपासक श्रमण-माहन को आहारादि देता है, तब प्रायः स्वयं ऊनोदरी तप करता है। उसे इससे बाह्यतप होता है। अब रही चौथी आचारसमाधि । श्रमणोपासक के श्रावकधर्म को ज्ञातासूत्र में विनयमूल धर्म बताया है । विनयमूल धर्म का आचरण करने वाले श्रावक को (श्रमण-माहन आहारादि से सेवन करने से उक्त श्रावक के प्रति उपकृत होने से ) श्रावकव्रत की नैतिक-आध्यात्मिक आचार, धर्मध्यान आदि को स्वरूप बतातें हैं। अतः उक्त आचारसमाधि से श्रमणोपासक ध्यान, कायोत्सर्ग ध्यान आदि आभ्यन्तर तपरूप समाधि प्राप्त करता है, जिससे आचारसमाधि में परिगणित
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१. ( क ) गोयमा ! समणोवासए णं तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाणखाइम साइमेणं पडिलाभेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उपाएति, समाहिकारए णं तमेव समाहिं पडिलभति ।
(ख) गोयमा ! (समणोवासए णं तहारूवं समणं वा माहणं वा जाव पडिलाभेमाणे) जीवियं चयति, दुच्चयं चयति, दुक्करं करेति, दुल्लहं लभति, वोहिं वुज्झति ततो पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति । - भगवतीसूत्र, श. ७, उ. १, सू. ९-१० (ग) देखें - व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, खण्ड २ केश. ७, उ. १ में 'चयति' क्रिया के विशेषार्थ ( आ. प्र. स., ब्यावर ), पृ. ११३
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