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* २५० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ *
दूसरी बात-'प्रश्नव्याकरणसूत्र' के तीसरे संवरद्वार में तथा 'स्थानांगसूत्र' के दशम स्थान में दस प्रकार का वैयावृत्य तप बताया है। साधु जैसे दूसरे साधु के लिए आहारादि लाकर वैयावृत्य कर सकता है, वैसे ही श्रावक भी श्रमण और श्रमणभूत श्रावक या व्रतबद्ध श्रावक की केवल निर्जरा की दृष्टि से आहारादि से वैयावृत्य कर सकता है। वैयावृत्य आभ्यन्तर तप का ही एक भेद है। 'भगवतीसूत्र' में कहा गया है-“वैयावृत्य से एकान्त निर्जरा होती है।"
तीसरी बात-श्रावक का बारहवाँ व्रत है-अतिथिसंविभागवत। अतः श्रमणोपासक श्रमण अथवा श्रमणभूत माहन या प्रतिमाधारी श्रावक को दान देकर अतिथिसंविभागवत तभी निष्पन्न कर सकता है, जब अपने लिए बनाये हुए भोजन में से श्रमणादि को अमुक भाग देकर, बचे हुए थोड़े-से भोजन से निर्वाह कर ले, स्वयं ऊनोदरी कर ले। अतः श्रमणादि को आहारादि दान देने से ऊंनोदरी नामक बाह्य तप हुआ, साथ ही विनय-वैयावृत्य नामक आभ्यन्तर तप एवं व्रत-पालन से बहुत-से कर्मों की निर्जरा संभवित है।'
चौथी बात-'भगवतीसत्र' में बताया गया है-“तथारूप श्रमण या माहन को यावत् प्रासुक (अचित्त) और एषणीय अशनादि चतुर्विध आहार से प्रतिलाभित करता हुआ (विधिपूर्वक शुद्ध कल्पनीय द्रव्य देता हुआ) श्रमणोपासक श्रमण या माहन के (जीवन में) समाधि उत्पन्न करता है। उन्हें समाधि प्राप्त कराने वाला श्रमणोपासक उसी समाधि को स्वयं प्राप्त करता है।"
“ऐसा श्रमणोपासक जीवित (जीवनरक्षा के लिए अत्युपयोगी कारणभूत जीवितवत् अन्नादि द्रव्य) का त्याग करता है; दुस्त्यज वस्तु का त्याग करता है, दुष्कर कर्म करता है, दुर्लभ वस्तु का लाभ लेता है; अतः उसे बोधि (सम्यग्दर्शन का) लाभ मिलता है, उसके कारण निर्जरा होती है। वह परम निर्जरा
१. (क) प्रश्नोत्तर मोहनमाला (गुजराती), भा. ३ (पू. श्री मोहनलाल जी म.) से भाव ग्रहण,
पृ. १५२ (ख) नवविहे पुन्ने प. तं.-अन्नपुन्ने नमोक्कारपुन्ने। -स्थानांग, स्था. ९, सू. ८८५ (ग) तपसा निर्जरा च।
-तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. ३ (घ) छव्विहे बाहिरे तवोकम्मे पन्नत्ते छव्विहे अभिंतरे तवोकम्मे पन्नत्ते ।
-समवायांग, समवाय ६, सू. २० (ङ) देखें-अन्तकृद्दशांगसूत्र में देवकी महारानी द्वारा ६ मुनियों को विधिवत् आहार देने
का वर्णन (च) प्रश्नव्याकरणसूत्र, द्वितीय संवर द्वार (छ) स्थानांगसूत्र, स्था. १० (ज) देखें-श्रावकधर्म, भा. २ (आचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज)
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