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________________ ॐ निर्जरा के विविध स्रोत ® २४९ ® करता है, वह पापकर्म का उपार्जन नहीं करता।" इसी प्रकार का एक सूत्र है"भगवन् ! तथारूप श्रमण या माहन को (किसी अत्यन्त कारण होने पर) अप्रासुक एवं अनैषणीय आहार देता है, उस श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है?" उत्तर दिया गया-"उसके बहुत-सी निर्जरा होती है, पापकर्म अल्पतर (बहुत ही कम) होता है।" ___ इन दोनों स्थितियों में है तो सकामनिर्जरा ही, किन्तु भिन्न स्थिति होने के कारण दोनों की निर्जरा में तारतम्य है। प्रथम स्थिति में पापकर्म तो बिलकुल नहीं होता, पुण्य का बन्ध होते हुए भी निर्जरा प्रचुरतम है; जबकि दूसरी स्थिति में पापकर्म अल्पतर है, पुण्य बहुतर है और निर्जरा भी बहुतर है। तथारूप श्रमण-माहन को आहारादि देने से निर्जरा कैसे हुई ? यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि पूर्वोक्त दो पाठों में तथारूप श्रमण या माहन को प्रासुक एवं एषणीय तथा (अपवादमार्ग में) अप्रासुक या अनैषणीय आहार देने वाले श्रमणोपासकद्वय के क्रमशः एकान्तनिर्जरा तथा बहुत-सी निर्जरा का लाभ बताया, किन्तु तथारूप श्रमण-माहनादि उत्कृष्ट सुपात्र को आहारादि देने से तो पुण्यलाभ होता है और पुण्य से शुभ कर्म का बन्ध होता है, जबकि (सकाम) निर्जरा से तो अशुभ कर्म का क्षय होता है। सिद्धान्तानुसार पुण्य नौ प्रकार के दानादि से, शुभ योगों से होता है, जबकि निर्जरा बारह प्रकार के तप से होती है। अतः पूर्वोक्त दोनों पाठों में तथारूप श्रमण एवं माहन को आहार देने में कौन-सा तप हुआ, जिसके कारण उन्हें आहार देने से एकान्त निर्जरा या बहुत निर्जरा कही जा सके ? इसका समाधान इस प्रकार है__ पहली बात-श्रमण तथा माहन को दान से सर्वप्रथम विनयतप होता है। श्रमणोपासक श्रमण को आहार देने से पहले भावना भाता है, फिर श्रमण को आहारादि दान देने के भाव से ७-८ कदम सम्मुख जाकर वन्दना-नमस्कार करके बहूमान से सविनय आहार देता है। इसलिए सर्वप्रथम विनय नामक आभ्यन्तर तप हुआ, जिससे अनेक कर्मों की निर्जरा होती है। १. (क) (प्र.) समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जति? । (उ.) गोयमा ! एगंतसो से निज्जरा कज्जइ; नत्थि य से पावे कम्मे कज्जति। (ख) (प्र.) समणोवासगम्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेण असण-पाण जाव पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ? . (उ.) गोयमा ! बहुतरिया से निज्जरा कज्जइ, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ। ' -भगवती, श. ८, उ. ६, सू. १-२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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