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________________ २४८ कर्मविज्ञान : भाग ७ मार्दव (मृदुता) से जीव अनुत्सुकता अर्जित करता है। उससे मृदु-मार्दव-सम्पन्न जीव मद के आठ स्थानों का क्षय कर देता है। मद मानकषाय के अन्तर्गत है । मानकषाय के क्षय करने से चारित्रमोहनीय कर्म की निर्जरा होती है। भक्त-प्रत्याख्यान से अर्थात् आजीवन अनशनव्रत से अनेक सैकड़ों जन्मों को रोक देता है, अर्थात् जन्म-मरण - रूप संसार को अत्यन्त घटा देता है, यह सकामनिर्जरा है। गर्हणा से आत्म-नम्रता को प्राप्त जीव अप्रशस्त योगों से निवृत्त होता है और प्रशस्त योग से युक्त होता है, जिसके कारण अनन्त घाति पर्यायों (अनन्त . दर्शन-ज्ञानादि के घातक ज्ञानावरणीयादि कर्म-पर्यायों का क्षय कर डालता है। अर्थात् घातिकर्मों की निर्जरा करके भविष्य में शीघ्र ही सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार निन्दना (आत्म-निन्दा ) से पश्चात्तापयुक्त होकर वैराग्य प्राप्त करता हुआ करणगुणश्रेणी (क्षपक श्रेणी ) प्राप्त करके वह अनगार मोहनीय कर्म का क्षय (निर्जरा) कर डालता है। ' सकामनिर्जरा के अन्य स्रोत 'भगवतीसूत्र' में भगवान महावीर से प्रश्न पूछा गया है- “भगवन् ! तथारूप ( चारित्रादि श्रमण गुणों से युक्त ) श्रमण अथवा माहन को प्रासुक (अचित्त) एवं एषणीय चतुर्विध आहार द्वारा प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ?” उत्तर में कहा गया - " वह ( ऐसा करके) एकान्तरूप से निर्जरा १. (क) विनियट्टयाए पावकम्माणं अकरणयाए अब्भुट्ठे । पुव्वबद्धाण य निज्जरणयाए तं नियत्तेइ । तओ पच्छा चाउरंतं संसारकंतारं वीइवयइ । - उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. ३२ (ख) विवित्तसयणासणयाए चरित्तगुत्तिं जणयइ । चरित्तगुत्ते य णं जीवे विवित्ताहारे दढचरित्ते एगंतरए मोक्खभावपडिवन्ने अट्ठविह-कम्मगंट्ठि निज्जरे - वही २९/३१ । (ग) जोग-पच्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणय । अजोगी णं जीवे नवं कम्मं न निज्जरे | (घ) मद्दवयाए णं अणुस्सियत्तं जणयइ । अ. तेण जीवे मिउमद्दवसंपन्ने अट्ठमयट्ठाणाई निट्ठावे | -वही २९ / ४९ (ङ) भत्तपच्चक्खाणेणं अणेगाई भवसयाइं निरुंभइ । बंधइ, पुव्वबद्ध -वही २९/३७ - वही २९ / ४० (च) गरहणयाए अपुरक्कारगए णं जीवे अप्पसत्थेहिंतो जोगेहिंतो नियत्तेइ, पसत्थे य पडिवज्जइ। पसत्थजोगपडिवन्ने य णं अणगारे अणंतघाइ - पज्जवे खवेइ । (छ) निंदणयाए गं पच्छातावेणं विरज्जमाणे करणगुणसेटिं - वृही २९/७ पडिवन्ने य णं - वही २९/६ अणगारे मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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