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________________ * निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप २३३ सकामनिर्जरा : कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे ? 'बृहत्कल्पभाष्य' में कहा गया है- “ अप्रमत्तसंयमी पापकर्मों से विरत (जाग्रत) साधक चाहे जान में (अपवाद स्थिति में) हिंसा करे या अनजान में, उसे अन्तरंग शुद्धि के अनुसार ( कर्मों की सकाम ) निर्जरा ही होगी, बन्ध नहीं । ” ‘विशेषावश्यकभाष्य' में कहा है- “ उपयोगयुक्त शुद्ध व्यक्ति के सम्यग्ज्ञान में कुछ स्खलना आदि होने पर भी वह शुद्ध ही है। उसी प्रकार धर्मक्रियाओं में कुछ स्खलनाएँ होने पर भी उस शुद्धोपयोगी की सभी क्रियाएँ निर्जरा की हेतु होती हैं । " 'निशीथभाष्य' के अनुसार - " जो साधक यत्नाशील होते हैं, उनका कर्मबन्ध अल्प- अल्पतर होता जाता है और निर्जरा तीव्र - तीव्रतर । इस प्रकार वह शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है । " क्योंकि राग की जैसी मंद, मध्यम और तीव्र मात्रा होती है, तदनुसार ही मंद, मध्यम और तीव्र कर्मबन्ध होता है। सकामनिर्जरा कहाँ और कैसे हो सकती है ? - इस सम्बन्ध में 'ओघनिर्युक्ति' में कहा गया है - " जो यतनावान् साधक अन्तरविशुद्धि से युक्त है और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा होने वाली विराधना भी कर्मनिर्जरा का कारण है।" 'समयसार' में भी कहा है- “सम्यग्दृष्टि आत्मा जो कुछ भी करता है, वह उसके कर्मों की निर्जरा के लिए ही होता है ।"' 'व्यवहारभाष्य' के अनुसार - "साधना में मनः प्रसाद - मन की प्रसन्नता या निर्मलता ही कर्मनिर्जरा का मुख्य कारण है।" साथ ही वहाँ कहा गया है–'आचार्य को कर्मों की निर्जरा के लिए (आत्म-शुद्धि के लिए ) ही संघ का नेतृत्व सँभालना चाहिए।" ' स्थानांगसूत्र' के धर्म अनुसार - " एक ( संवर - निर्जरारूप ) ही ऐसा अनुष्ठान (प्रतिमा) है, जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है।" "उस शुद्ध धर्म का उपदेश अन्न-पानी आदि के लिए नहीं करना चाहिए, अपितु अग्लान (प्रसन्न - प्रशान्त) भाव से, केवल कर्मनिर्जरा के लिए धर्म का उपदेश करना चाहिए।” ऐसा 'सूत्रकृतांग' का कथन है । ' १. (क) विरतो पुणजो जाणं कुणति अजाणं व अप्पमत्तो वा । तत्थवि अज्झत्थ समा, संजायति णिज्जरा, ण चयो । (ख) उवउत्तस्स उ खलियाइयं पि सुद्धस्स भावओ सुत्तं । साहइ तह किरियाओ, सव्वाओ निज्जरफलाओ ।। (ग) अप्पो बंधो जयाणं, बहुणिज्जर, तेण मोक्खो तु । (घ) जति भाग- गया मत्ता, रागादीणं तहा चयो कम्मे । (ङ) जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहि- समग्गस्स । सा होइ निज्जरफला, अज्झत्थ-विसोहि - जुत्तस्स ॥ (च) जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं । (छ) जो सो मणप्पसादो, जायइ सो निज्जरं कुणति । Jain Education International For Personal & Private Use Only - बृह. भा. ३९३९ - विशेषा. भा. ८६० - निशीथभाष्य ३३३५ - वही ५१६४ - ओघनि. ७६१ - समयसार १९३ -व्यवहारभाष्य ६/१९० www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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