SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ २३४ * कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 . ये सब शास्त्रीय प्रमाण सकामनिर्जरा के हैं, जिन्हें सम्यग्दृष्टि-सम्यग्ज्ञानी सहज भाव से आचरित कर सकता है। विशिष्ट सकामनिर्जरा की व्याख्या विशिष्ट सकामनिर्जरा की व्याख्या ‘पंचास्तिकाय' के अनुसार इस प्रकार है"जो भेदविज्ञानी जीव शुभाशुभ आस्रवों के निरोधरूप संवर और शुद्धोपयोगरूप योगों से युक्त होकर विविध बाह्य-आभ्यन्तर तपों द्वारा पुरुषार्थ करता है, वह नियमतः बहुत-से कर्मों की निर्जरा कर लेता है।" इस प्रकार से कर्मों का क्षय होना विशिष्ट सकामनिर्जरा है।" सकामनिर्जरा और मोक्ष में अन्तर प्रश्न होता है-फिर सकामनिर्जरा और मोक्ष में क्या अन्तर है? इसका समाधान ‘स्थानांगसूत्र वृत्ति' में इस प्रकार किया गया है-"(यद्यपि दोनों की कर्ममुक्ति ही लक्ष्य है तथापि) देशतः कर्मक्षय होना (सकाम) निर्जरा है और सर्वतः कर्मक्षय होना मोक्ष है।" सकामनिर्जरा से कर्मक्षय होने से आत्मा के शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि होती है। शुभाशुभ आस्रवों के निरोध से संवर होता है, जबकि शुभाशुभ कर्मबन्धों का आत्मा से पृथक् होने से निर्जरा होती है। किन्तु इन दोनों से आत्मा की सीमित स्वरूपोपलब्धि होती है, जबकि पूर्ण संवर और पूर्ण निर्जरा होती है, तब आत्मा की पूर्णरूपेण स्वरूपोपलब्धि हो जाती है। यही सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष है। .. पिछले पृष्ठ का शेष (ज) कामाणं निज्जरठ्ठा, एवं खु गणो भवे धरेयव्यो। -व्यवहारभाष्य ३/४५ (झ) एगा धम्म-पडिमा, जं से आया पज्जवजाए। -स्थानांग १/१/४० (ञ) णो अन्न हेडं, णो पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा। ___. अगिलाए धम्ममाइक्खेज्जा, कम्मनिज्जरट्ठाए धम्ममाइक्खेज्जा। -सूत्रकृतांग २/१/१५ १. संवर-जोगेहिं जुदी, तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहिं।। कम्माणं णिज्जरणं कुणदि सो नियदं॥ -पंचास्तिकाय, गा. १४४ २. (क) निर्जरा-मोक्षयोः कः प्रतिविशेषः? उच्यते-देशतः कर्मक्षयो निर्जरा, सर्वतस्तु मोक्षः इति। -स्थानांगसूत्र वृत्ति, स्था. १ (ख) “जैनदर्शन : मनन और मीमांसा' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. ४४२ (ग) अत्र शुभाशुभ (निरोधरूप) संवरसमर्थः शुद्धोपयोगो भावसंवरः। भावसंवराधारेण नवतर कर्मनिरोधो द्रव्यसंवरः॥ -पंचा. वृत्ति १४२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy