________________
ॐ २३२ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
मोक्षाभिप्राय या अनिच्छा) से जो निर्जरा होती है, वह अकामनिर्जरा है। 'राजवार्तिक' के अनुसार-आत्म-शुद्धि या मोक्ष के अभिप्राय से विषय-कषायों के अनर्थ से न की हुई निवृत्ति अथवा न किये हुए त्याग से तथा परतंत्रतावश (परवश) होकर किये हुए भोग-उपभोग के निरोध से होने वाली निर्जरा अकामनिर्जरा है। सकामनिर्जरा का स्वरूप
इसके विपरीत जो निर्जरा आत्म-शुद्धि के लक्ष्य से, मोक्ष के आशय से सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानपूर्वक किये जाने वाले बाह्य-आभ्यन्तर तप से, विविध रोगादि कष्टों-विपत्तियों, यातनाओं आदि के समय समभावपूर्वक सहन करने से, परीषह सहने, उपसर्गों पर विजय पाने से होती है अथवा आत्म-स्पर्शी उत्कृष्ट एवं कठोर धर्म (कर्मक्षयकारक संवर-निर्जरारूप धर्म) साधना से कर्मों का जो क्षय होता है, वह सकामनिर्जरा है। . सकामनिर्जरा सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्षसाधक के लिए अभीष्ट
यहाँ सर्वकर्ममुक्ति के सन्दर्भ में सकामनिर्जरा ही अभीष्ट है, क्योंकि मुमुक्षु साधक का लक्ष्य सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष है। अकामनिर्जरा से कर्मक्षय तो होता है, किन्तु अज्ञान, मूढ़ता तथा मिथ्यादृष्टि के कारण आत्म-शुद्धि एवं मोक्ष का लक्ष्य न होने से, विषमभावपूर्वक अनिच्छा से व्रताचरण, तपश्चरण या कष्ट-सहन से नये कर्मों का बन्ध प्रायः अधिक हो जाता है। जबकि सकामनिर्जरा में कर्म का क्षय भले ही न्यूनाधिक होता हो, लेकिन वह होता है-सम्यग्ज्ञानपूर्वक आत्म-शुद्धि के लक्ष्यपूर्वक।
१. (क) चउहिं ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं.-सरागसंयमा
संयमासंयमाऽकामनिर्जरा-बालतपांसिदेवस्य। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ६, सू. २० (ख) सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं बालतवोकम्मेणं अकामणिज्जराए।
-स्थानांगसूत्र, स्था. ४, उ. ४, सू. ४७२ (ग) जैनतत्त्वकलिका (स्व. आचार्य श्री आत्माराम जी म.), कलिका ५, पृ. १०० (घ) अकामश्चारक-निरोध-बंधन-बद्धेषु क्षुत्तृष्णा-निरोध-ब्रह्मचर्य-भूशय्या-मलधारण
परितापादिः। अकामेन निर्जरा अकामनिर्जरा। -सर्वार्थसिद्धि ६/२०/३३५/१0 (ङ) विषयानर्थनिवृत्तिंचात्माभिप्रायेणाकुर्वतः पारतंत्र्याद् भोगोपभोग-निरोधोऽकामनिर्जरा।
-रा. वा. ६/१२/७/५२२/२८ (च) देखें-सप्ततत्त्वप्रकरण, अ. ६ में देवानन्दसूरिकृत नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह सकाम
अकाम-निर्जरा का स्वरूप २. जैनतत्त्वकलिका (स्व. आचार्य श्री आत्माराम जी म.), कलिका ५, पृ. १००
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org