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________________ ॐ निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप ॐ २३१ ® प्रकृतिभद्र उपशान्त गृहस्थ भी अकामनिर्जरा के कारण अनाराधक इसी प्रकार जो व्यक्ति नगर, ग्राम आदि में प्रकृति से भद्र, उपशान्त हैं, जिनकी कषायें भी मन्द (पतली) हैं, जो मृदु-मार्दव-सम्पन्न एवं विनीत हैं, माता-पिता की शुश्रूषा करते हैं, उनके वचनों का उल्लंघन नहीं करते, अल्प इच्छा, अल्प आरम्भ तथा अल्प परिग्रह से युक्त हैं, अल्प आरम्भ-समारम्भ से जीविका चलाते हैं, वे दीर्घायु होकर यथाकाल मृत्यु प्राप्त करके १४ हजार वर्ष की स्थिति वाले वाणव्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं। परन्तु सम्यग्दृष्टि तथा मुक्तिलक्षी अध्यात्मदृष्टि न होने से वे अकामनिर्जरा ही कर पाते हैं और अनाराधक होते हैं। निर्जरा के दो प्रकार : अकामनिर्जरा का फलितार्थ इन शास्त्रीय पाठों पर से फलित होता है कि सामान्य रूप से निर्जरा एक होते हुए भी दो प्रकार की है-अकामनिर्जरा और सकामनिर्जरा। 'काम' शब्द यहाँ कामना या वासना के अर्थ का द्योतक नहीं है। अपितु वह प्रयुक्त है-उद्देश्य, आशय, इच्छा या अभिलाषा अर्थ में। इस दृष्टि से अकामनिर्जरा का फलितार्थ होता है-आत्म-शुद्धि के आशय से या मोक्ष के उद्देश्य से रहित, निरुपायता से, अनिच्छा से, विवशतापूर्वक या अज्ञानपूर्वक कष्ट सहने या तप करने से या ब्रह्मचर्यव्रतादि का पालन करने से, मूढ़ता एवं स्वार्थपूर्वक तप आदि करने से या इहलोक-परलोक में कामसुखादि की वांछा से, स्वर्गादि की कामना से, निदानपूर्वक तप आदि करने से जो निर्जरा होती है, वह अकामनिर्जरा है अथवा कर्मस्थिति का परिपाक (उदय) होने पर आर्त-रौद्रध्यानपूर्वक कर्मफल भोगने के बाद कर्मों का झड़ जाना अकामनिर्जरा है। ‘सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है-चारक (कारागार) में रोक रखने पर या रस्सी आदि से. बाँध रखने पर जो भूख-प्यास सहनी पड़ती है, ब्रह्मचर्य पालना पड़ता है, भूमि पर सोना पड़ता है, मल-मूत्र को बरबस रोकना पड़ता है और उनसे संताप आदि होते हैं, ये सब अकाम हैं और अकाम (बिना पिछले पृष्ठ का शेष पाउणंति २ ता, तस्स ठाणस्स अणालोइय-अप्पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे कंदप्पिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। सेसं तं चेव । -औपपातिकसूत्र ३७/११ १. से जे इमे जाव सन्निवेसेसु मणुया भवंति, तं.-पगइ-भद्दगा, पाइ-उवसंता, पगइ-पतणु-कोह-माण-माया-लोहा, मिउ-मद्दव-संपण्णा, अल्लीणा, विणीया अमापिउसुस्सूसगा, अम्मा-पिईणं अणइक्कमणिज्ज-वयणा अप्पिच्छा अप्पपरिग्गहा अप्पेणं आरंभेण वित्तिं कप्पेमाणा बहुइं वासाइं आउयं पालतिचउद्दसवाससहस्साठिई।। -वही ३७/७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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