SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * अप्रमाद-संवर का सक्रिय आधार और आचार * ५ ॐ 'भगवान महावीर का उपदेश : समयमात्र भी प्रमाद मत करो भगवान महावीर ने गणधर गौतम स्वामी जैसे उच्च कोटि के साधक को प्रमाद-त्याग के लिए बार-बार प्रेरणा देते हुए कहा-“वृक्ष से टूटे हुए पीले पत्ते के समान मनुष्य का जीवन नश्वर रहे, वह कुश के अग्र भाग पर पड़ी हुई ओस-बिन्दु के समान अल्पकालस्थायी है, जीवन अल्पकालिक है, उसमें भी अनेक प्रकार के अपाय और विघ्न आ जाते हैं। फिर यह मनुष्य-जीवन तो चिरकाल के बाद प्राप्त होता है, अतः अतिदुर्लभ है, कर्मों के विपाक बहुत गाढ़ हैं। इसलिए हे गौतम ! समयमात्र भी प्रमाद मत कर। देख तू पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रियकायिक जीवयोनि को प्राप्त हुआ, उसमें नारक, तिर्यंच, देवभवों में बहुत काल तक रहा, वहाँ किसी प्रकार ज्ञान-दर्शन-चारित्र की साधना न हो सकी। स्थावरकाय और त्रसकाय में दीर्घकाल तक संवास होने पर अतिदुर्लभ मानवभव मिला। किन्तु मनुष्यभव मिलने पर आर्यत्व, परिर्पूण इन्द्रियाँ, दीर्घायुष्य, उत्तम धर्म का श्रवण, सुदृढ़ श्रद्धा एवं सद्धर्म का आचरण करना आदि का योग बहुत दुर्लभ है। ये सभी साधन प्राप्त होने पर भी प्रमादवश कुतीर्थिकों के चक्कर में फँसकर आडम्बरों और विषयवासनाओं में मूर्छित हो जाता है। इसलिए तुम्हें तो ये सब दुष्कर साधन प्राप्त हो गए हैं, अतः समयमात्र भी प्रमाद मत करो।" फिर उन्होंने कहा-तुम्हारा शरीर जराजीर्ण तथा केश सफेद हो रहे हैं, पाँचों इन्द्रियों का बल भी क्षीण हो रहा है। हो सकता है, अन्य वृद्ध लोगों की तरह तुम्हारे शरीर को वातरोगजनित चित्रोद्वेग, फोड़ा-फुसी, हैजा आदि शीघ्रघातक व्याधियाँ घेर लें और तुम्हारा शरीर शक्तिहीन या विनष्ट हो जाय, अतः उससे पहले ही समयमात्र भी प्रमाद करना छोड़ दो। प्रमाद-त्याग के लिए कमल जैसे जल से निर्लिप्त रहता है, वैसे तुम भी सभी प्रकार के स्नेह (रागजनित) बन्धनों को तोड़ दो। पूर्व-परिचितों और प्रव्रज्या के बाद के परिचितों से सम्बन्धों को बिलकुल भूल जाओ और क्षणमात्र भी प्रमाद किये बिना साधुत्व के विषय में सतत पुरुषार्थ करो। तुम्हें अपने में जिनत्व को जगाकर प्रमादरूप पर-भावों का अवलम्बन छोड़कर स्वाश्रय से स्वयं का मार्गदर्शन स्वयं करना है। गौतम ! अब तुम कण्टकाकीर्ण पथ को छोड़कर मोक्ष के विशाल महापथ पर आ गए हो, अतः प्रमादवश दुर्बल साधक बनकर विषम (संयमरहित) मार्ग पर पुनः मत चढ़ जाना। अप्रमत्त होकर संयम की विशुद्ध साधना करना। हे गौतम ! तू संसाररूपी महासागर का अधिकांश तो पार कर चुका है, अब इसके तट पर पहुँचकर क्यों खड़ा हो गया? इसे पूरा पार करने की शीघ्रता कर। अर्थात् द्रव्य और भाव से मुक्ति (कर्मों से सर्वथा मुक्ति पाने के लिए द्रुतगति से पराक्रम कर, इसलिए समयमात्र भी प्रमाद करना ठीक नहीं है। अगर तुम प्रशस्त राग का भी झटपट त्याग कर दोगे तो तुम भी अशरीरी सिद्धों की तरह क्षणक श्रेणी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy